सुनीता मिश्रा
अंश ने आश्चर्य से उसे देखते हुए पूछा, “यह क्या है दादी माॅं??”
“यही है तुम्हारे पापा के नाराजगी का कारण। जिसके कारण वह कभी गांव नहीं आता था। तुम्हारे दादाजी एक गांव के ही प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते थें।
और हमारी थोड़ी बहुत जमीन भी है, जिसके कारण हमारे घर का खर्च आराम से चल जाता था । किंतु तुम्हारे दादाजी को लिखने का ऐसा शौक लगा कि उन्होंने नौकरी छोड़ दी और सारा दिन लिखते रहते थें।
उन्हें ना खाने की चिंता होती न पहनने की ।
घर की स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी। तुम्हारे पापा उस समय शहर में रहकर पढ़ रहे थें । खर्च चलाना मुश्किल हो गया था घर का।
फिर तुम्हारे पापा ने शहर में ट्यूशन पढ़ाकर अपनी पढ़ाई जारी रखी। बहुत संघर्ष के बाद उसकी पढ़ाई पूरी हुई और वह एक अच्छी नौकरी पाकर शहर चला गया था।
अंतिम बार जब तुम्हारे पापा- किशन, गांव आया था तो वह चाहता था गांव की जमीन बेचकर शहर में घर खरीदा जाए। मैंने इसके लिए मना कर दिया , जिस वजह से वह नाराज होकर चला गया और फिर इतने साल गांव नहीं आया।”
जाते जाते दादी मां ने अंश को दादा जी का सपना सुनाया -“तुम्हारे दादाजी का कहना था की एक दिन मेरे लिखे हुए एक-एक शब्द को इज्जत और सम्मान मिलेगा।”
दादी मां जाकर सो गई थी किंतु अंश दादाजी के लिखे हुए एक-एक पेज को सारी रात उलट पलट कर देखते रहा, उसके समझ में कुछ नहीं आ रहा था।
दूसरे दिन उसने फोन करके अपने दो दोस्तों को बुला लिया। किशन और श्वेता छुट्टी की कमी के कारण दिल्ली चले गए थें। जाते वक्त उनके आंखों में प्रायश्चित के आंसू थें और माॅं से बरसों बाद असीम प्रेम पाने की खुशी थीं।
अंश और उसके दोस्तों ने कई दिनों के अथक प्रयास के बाद दादाजी की लिखीं हुए सारी किताबे, गजलें और कविताओं को इकट्ठा किया । अंश के एक दोस्त का अपना प्रकाशन था जो आज शहर का नंबर वन प्रकाशन के नाम से जाना जाता था। सबने मिलकर उनसे संपर्क किया और आखिर में दादाजी जिनका नाम प्रकाश जीत था, उनकी आखिरी इच्छा पूरी हुई। सारे गजल, उपन्यास और कविता के लेखक का नाम दिया गया
“अंश प्रकाश जीत!!”
देखते देखते ” अंश प्रकाश जीत ” लेखन की दुनिया में एक बहुत बड़ा नाम बन गया । किताबें हाथों हाथ खरीदी जाने लगी। समय थोड़ा और तेज़ी से बढ़ने लगा। अंश ने अपने दादा जी का जो सपना सार्थक करने की जिम्मेदारी वर्षों पहले अपने छोटे कंधों पर ली थी, वह आज पूरी हो गई है।
अब दादाजी के वर्षों की मेहनत का लाखों रुपया एवं उनकी प्रसिद्द किताब लेकर अंश एक बार फिर अपने दादा जी के गांव निकल गया है। इस बार का सैर थोड़ा अलग रहेगा क्योंकि अंश जानता है दादाजी के बरसों के कठिन तपस्या के परिणाम रूपी फल पर सिर्फ और सिर्फ उसकी दादी माॅं का अधिकार हैं। जब कोई नहीं था तब भी उस कठिन तपस्या की भागीदार दादी माॅं ही थीं, और इसलिए आज इस खुशी की पहली हकदार भी वही रहेंगी।
(काल्पनिक कहानी)
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