रचनाकार: शबनम मेहरोत्रा, कानपुर
स्वच्छंद जीवन
कुछ लोग बंदिशों से
बाहर निकलने को आतुर है
स्वच्छंद रह कर जीवन जीने
की तमन्ना में ।
आसान तो लगता है स्वच्छंद
जीवन जीने / कविता लिखने में
मगर – क्षणिक है / दिखवा है ।
बंदिश की अलग मर्यादा है।
चाहे घर हो या कविता ।
हाँ – – बंदिश के लिए पर्दे,घूंघट
कवियों के लिए कविता विधा
का ज्ञान
तभी होगा स्थाई सम्मान
बंदिशों के बाहर दिखावा भ्रम
बंदिशों के अंदर कठिन श्रम
क्या चुनना है चुनलो
बाजार खुला है,,, खुला है,, खुला है ।
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बीत गया आधा जीवन
बीत गया आधा जीवन रिश्तों को सम्भाला
खुद को रखा कड़ी धूप में रिश्ते ठंडी छॉंव में
सम्बन्धों को स्थिर करने बहुत दूर तक आ निकली,
देखा मगर की रिसता लहू है अपने घाव में
मानवता की दृष्टि से तो लोग सभी अपने दिखते
पर अफसोस मुझे होता है जज्बातों के बहाव में
बहुत स्वार्थी है ये दुनियाँ देखा परखा जान लिया
लोग यहाँ पर व्यस्त हैं सारे अपने अपने दाँव में
इस उलझन से मुझे निकालो ले शबनम को दूर चलो
तेरे संग मै चल निकलूँगी शहर छोड़ कर गाँव में
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मेरे अपने हो
मेरे अपने हो अहसास दिलाते रहना
बस इसी तरह ये रिश्ते निभाते रहना
फासले शहर के होने दो कोई बात नही
दूरियाँ दिल की न ज्यादा बढ़ते रहना
तुम गए लौट कर नही आए अब तक
कभी कभी तो मेरे ख्वाब में आते रहना
हमारे बाद तुम्हें मेरी याद आयेगी बहुत
गीत ग़ज़लों से मेरी याद जागते रहना
तेरी यादों में शबनम हमेशा जिंदा है
अपनी यादों में एक दीप जलाए रखना
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जेहन
जेहन बीमार न होने पाए
लफ्ज़ बेकार न होने पाए
अपनी नज़रें टिकाए रखिए
बेलगाम सरकार न होने पाए
आपसी रिश्ते बना कर रखिए
भाइयों में दीवार न होने पाए
मुल्क को गर्दिश में डालने वाले
फिर से ताजदार न होने पाए
जो रियाया के धन पर मौज करे
फिर सिपहसालार न होने पाए
आज की बात कल भूले शबनम
तुम्हारी सोच अखबार न होने पाए
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कुछ नहीं कहते
कुछ नहीं कहते फ़क़त सुनते हैं
आप की बात का अर्थ गुनते हैं
मुफ़लिसी में न मददगार कोई आया
कहने को बेशक हजारों रिश्ते हैं
क्या कहूँ इश्क की अपनी दास्ताँ
बहुत ही मशहूर हमारे किस्से हैं
बेवफ़ाई कैसे मैं बयाँ करूँ उनकी
अश्क़ अपना ही आज पीते हैं
कोई आया है न कोई आएगा इस जा
सच में शबनम उनके जुमले हैं
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