पंकज शर्मा “तरुण “, पिपलिया मंडी (म. प्र.)
रण भेरी (गीतिका)
अपनी बात बताता चल तू।
मन के भेद मिटाता चल तू।।
नफरत की दीवारों को अब
मुहब्बत से गिराता चल तू।।
जैसे कोयल गीत सुनाती।
सुंदर गीत सुनाता चल तू।।
मांग रही है भारत माता।
मां का कर्ज चुकाता चल तू।।
आँखें बैरी है दिखलाता।
रण भेरी बजवाता चल तू।।
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नृत्यांगना (दोहा छंद)
मगन हुई नृत्यांगना,सुन कर सुर अरु ताल।
जैसे वन में नाच कर, करता मोर कमाल।।
मुद्रा मुख मन मोहती,चले हिरण सम चाल।
देख स्वर्ग सी अप्सरा, वहीं रुक गया काल।।
देख नाच मन मोहिनी,प्रकट हुए नटराज।
नृत्य देख पहना दिया,कलाकार को ताज।।
नृत्य तभी मन मोहता,मिले ताल से ताल।
बेताला को देख कर, पूछे सभी सवाल।।
जिंदा जादू नृत्य है,रीझे संत सुजान।
कर लेते तप भंग भी,खोते सब सम्मान।।
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इंसान (कुण्डलिया)
जीना मुश्किल हो रहा, डरा हुआ इंसान।
अब सीमा को लांघना,है कितना आसान।।
है कितना आसान, सिद्ध आतंकी करते।
निर्दोषों को मार, चले जाते कब डरते।।
कहे तरुण कविराय,लाल होती पश्मीना।
भारत में ही हुआ, हिंदु का मुश्किल जीना।।
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जीवन रेखा (कविता)
नदियों के अधरों पर भाई, बांधों के ताले मत डालो।
उद्योगों के दूषित जल को, तुम गंदे नाले मत डालो।।
है जहरीली गंगा जमुना,जिनकी करते हैं सब पूजा।
पॉलीथिन में भरकर पूजा,तुम सामग्री को मत डालो।।
जेबें अपनी भर लेने को, धर्म ध्यान को क्यों हो भूले।
भारी यंत्रों से नदियों के,नाजुक अधर छील मत डालो।।
पहले तो यह माता कहते,फिर लालच में होते अंधे।
भौतिकता की दौड़ हैअंधी,विष के नाले तुम मत डालो।।
सबकी यह जीवन रेखा है,अन्न नीर देती है सबको।
अधरों की सुंदर हरियाली,लोभ असी से उड़ा मत डालो।।
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Brilliant!!