आखिरी चैप्टर
मनीष — हां, हां बोलो, मां! क्या पिताजी मेरे लिए क्या संदेश दे गए थे?
राजेश्वरी — बेटा! वे अपनी आधी दौलत तुम्हें देने को कह गए थे।
बस, इतना सुनना था कि मनीष के भीतर भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। उसे लगा कि उससे ज्यादा खुदगर्ज इस दुनिया में कोई नहीं है। उसके दिमाग में वह दृश्य घूमने लगा जब उसके पापा अपनी अंतिम सांसें गिनते हुए उसके लिए तड़प रहे होंगे! कैसे उसके नाम की माला जपते—जपते दम तोड़ रहे होंगे। यह सब सोच—सोचकर उसकी आंखों से आंसू बहने लगे और गला रुंधने लगा।
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उसे बचपन के वे दिन याद आए जब उसने अपने लिए नई ड्रेस की जिद की थी। हुआ यूं कि जब मनीष दस साल का था तब उसने एक दिन अपने लिए नई ड्रेस खरीदने की जिद पापा से की थी। पापा पहले तो थोड़ी टालमटोल करते रहे। पर शाम को जब वे अपने दफ्तर से लौटे तो उनके हाथ में नई ड्रेस का डिब्बा था। वह ड्रेस पहनकर मनीष इतराते हुए घूमता रहता था। पर एक दिन उसे अहसास हुआ कि वास्तव में उसकी इस खुशी के पीछे पापा का कितना त्याग छिपा हुआ है।
हुआ यूं उस दिन पापा नहाने के लिए बाथरूम में गए। पर अपनी बनियान ले जाना भूल गए। उन्होंने नहाने के बाद मनीष को बनियान लाने के लिए आवाज दी। मनीष घर की बालकनी में सूख रही उनकी बनियान लेने गया। जब उसने बनियान उठाई तो हैरान रह गया। उसकी आंखों में आंसू आ गए। पापा की बनियान में छेद ही छेद! एक नहीं बल्कि बीस—पच्चीस! उन छेदों में झलकती गरीबी, मायूसी और पिता के फर्ज जैसी बातें उसके बालमन को दुखी कर गई। उसे समझ में आ गया कि पिता उससे कितना प्यार करते हैं और भले ही वे खुद फटे—पुराने कपड़े पहनते हों पर मनीष को नई ड्रेस दिलाकर उसे खुश देखने में ही उन्हें सच्ची खुशी मिलती है। उस दिन के बाद से मनीष ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि चाहे जो भी हो जाए वह अपने परिवार को इस तंगहाली के दलदल से निकाल कर ही रहेगा और बड़ा होने पर अपने लिए अच्छी सी नौकरी तलाश कर पापा का दाहिना हाथ बनेगा।
यह बात अलग है कि जब उसे पढ़ाई पूरी होने के बाद उसे पूगल कंपनी में नौकरी मिली तो समय के साथ इन सब बातों की याद उसके जेहन में धुंधला सी गई थींं। उन पर धूल की परत सी जम गई थी।
उसे वे दिन भी याद आए जब पापा मामूली से क्लर्क के पद से प्रमोट होकर क्लास वन अफसर बने थे। उन्हांनेे यह कामयाबी अपनी लगन और कर्मठता और योग्यता के दम पर हासिल की थी। वे जब अफसर बने तो मनीष का लालन—पालन और बेहतर ढंग से करने लगे। उन्होंने मनीष के लिए कई जगह पैसे जमा करके, निवेश आदि करके अपने रिटायरमेंट के पहले तक लाखों की रकम इकट्ठा कर ली थी। हालांकि उन्होंने मनीष को इस बारे में कोई हिंट नहीं दिया था कि उन्होंने कितनी बड़ी रकम उसके लिए जमा कर दी है। वे अक्सर कहते रहते थे — मैं कुछ नहीं करता, सब मनीष और राजेश्वरी की किस्मत से हो रहा है।
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इन सब बातों को याद करते—करते वह भर्राई आवाज में बोला — मां! मैं समझ गया कि मेरे पिता कितने महान थे! मेरे बारे में कितनी चिंता करते थे! एक मैं ही नालायक हूं जो आखिरी समय में भी उनके पास हाजिर नहीं रह सका। मां, मैं कितना बड़ा कृतघ्न हूं जो अपने देवता जैसे पिता को अपने करियर के लिए दांव पर लगा बैठा। उनकी सेवा—सुश्रुषा करने से वंचित रह गया। मां आप सही कहती थीं कि मुझे नौकरी तो दूसरी मिल सकती थी पर उनके जैसा पिता दोबारा नहीं मिलेगा। मां, मैं आ रहा हूं अपने वतन! वहां जो भी, जैसे भी गुजारा होगा कर लूंगा। इस सोने के शहर में लोगों के दिल पत्थर जैसे हैं। मुझ पर भी उनका साया शायद पड़ गया था। मैं यहां हरगिज नहीं रहना चाहूंगा!
मनीष की ऐसी बातें सुनकर राजेश्वरी के दिल को बेहद सुकून पहुंचा। वे भावविभोर होकर बोलीं — चलो! देर से ही सही तुम्हे अक्ल तो आई! आओ, अब घर लौट आओ! तुम्हारी मां तुम्हारा बांहें फैलाए स्वागत करने को तैयार है! यहीं पर पिताजी से मिलने वाली धन—दौलत से अपना कोई छटा—मोटा कारोबार शुरू कर देना! और
मनीष — और क्या मां?
राजेश्वरी — कुछ नहीं बेटा! जब तुम्हारा धंधा जम जाए तो एक सुंदर सी सबको साथ लेकर चलने वाली बहू ले आना ताकि हमारी जिंदगी चैन से गुजर—बसर हो सके!
मनीष — जैसा आप कहोगी, मां वैसा ही होगा। मैं आपके पास अगले हफ्ते आ ही रहा हूं!
मनीष की ऐसी बातें सुनकर राजेश्वरी के मन में आशाओं के असंख्य दीप जल उठे।
(काल्पनिक कहानी )