रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर
“जो किताब तुम ले जा रहे हो, क्या उसमें बरसात की कविता है?” मैंने पूछा।
“जी, देखी तो नहीं है पर पुस्तक बेचने वाले ने कहा था सभी प्रकार की कविताएं इसमें हैं। बरसात होने को थी इसलिए मैं जल्दी में ले आया! “
“क्या वो बुक दिखाओगे? ” मैंने पूछा।
उसने अपने कमीज के ऊपर वाले दो बटन खोले और बनियान के भीतर से कविता की बुक निकाल कर मुझे दिखाई। बुक देखते ही मैं चौंक गया। वो पुस्तक तो मेरी ही थी जो मैंने कुछ महीने पहले ही छापवाई थी।
“इस बुक में बरसात के विषय में कोई कविता नहीं है!”
अब वह चौंका – “ये आप कैसे कह सकते हैं बाबूजी?”
“…. क्योंकि ये किताब मैंने ही लिखी थी! “
उसने बुक पर लेखक का नाम पढ़ते हुए कहा – “क्या आप ही सुरेंद्र पाठक हैं?” मैंने हाँ मे सिर हिला दिया।
वह पशोपेश में पड़ गया कि अब वह क्या करे?
“तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं। मैं अभी अभी तुम्हारे आने से पहले बरसात पर ही कविता लिख रहा था जो एक बाल पुस्तक के प्रकाशक ने अनुरोध करके मुझसे मांगी थी। इस कविता को वह अपनी बाल पुस्तक में प्रकाशित करना चाहता है और उस पुस्तक को प्राथमिक स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल कराने के लिए शिक्षा मंत्रालय तक पहुँच बनाने चला है।”
मैं तनिक रुका। मैंने सोचा कि मैंने उसे उसके हाजमे से ज्यादा बता दिया। वह मेरा मुँह देख रहा था।
“तुम मेरी यह कविता ले जाओ और अपनी बेटी को दे देना।”
वह असमंजस में बोला – ” लेकिन बाबूजी ये कविता तो आपने और किसी के लिए लिखी है।”
मैंने मुस्कुराते हुए कहा – “इस कविता का मालिक मैं हूँ। मेरी मर्जी इसे किसी को भी दूँ।”
उसने कांपते हाथों से खिड़की के सरियों के बीच में से मेरी उस कविता का पन्ना ले लिया और बुक के बीच हिफाजत से रख लिया।
“… और हाँ, जो कविताओं की बुक तुमने खरीदी है, वो भी तुम्हारी बेटी के बहुत काम आयेगी। उसे दे देना। ” मैंने कहा।
बारिश रुक चुकी थी।
“जी बाबूजी! ” कहकर अभिवादन कर वह चला गया।
________________
एक दिन बाद मेरे मोबाइल पर अन-नोन काल आई! मैंने काल उठाते हुए बोला – ” हैलो! कौन?”
“बाबूजी, नमस्कार! मैं वही खिड़की वाला बन्दा। मेरी बेटी ने बरसात पर लिखी आपकी कविता का पाठ करके स्कूल में प्रथम पुरुस्कार जीता है और उसे मैडल और सर्टिफिकेट दोनों मिलने जा रहे हैं। मुझे आपका मोबाइल नम्बर आपकी बुक से मिला है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। “
“चलो, अच्छा हुआ। तुम्हें बधाई और तुम्हारी बिटिया को आशीर्वाद।” मैंने कहा।
वो और भी कुछ कहना चाह रहा था लेकिन उसके फोन से अचानक संपर्क हट गया। कोई तकनीकी खराबी। आगे बात न हो सकी।
वैसे एक साहित्यकार, समाज को अपनी रचनाओं के माध्यम से कुछ न कुछ देता ही है लेकिन आज जो “देने का सुख” मैं अनुभव कर रहा था, वो कुछ विशेष ही था। मैं कल्पना में उस नन्हीं सी गुड़िया के गले में झूलता मैडल, हाथ में पकड़ा सर्टिफिकेट और खुशी से मुस्कुराता और चहकता चेहरा देख रहा था। मेरी पलकों में खुशी के आँसू कहीं आ ठहरे थे।
(काल्पनिक रचना )