रचनाकार : पंकज शर्मा “तरुण “, मंदसौर (म. प्र.)
कितना अच्छा लगता है
सुबह सवेरे जल्दी उठकर ,
हरी घास पर
गिरी ओस पर
नंगे पैरों दौड़ लगाना।
कितना अच्छा लगता है।।
सुबह सवेरे जल्दी उठकर,
मोबाइल पर
मन को भाते
नए -नए छंद बनाना।
कितना अच्छा लगता है।।
सुबह सवेरे जल्दी उठ कर ,
ब्रम्ह मुहूर्त में
बाबा के संग
योगा और ध्यान लगाना।
कितना अच्छा लगता है।
सुबह सवेरे जल्दी उठकर,
पापा के संग
सूरज दादा को
नित्य नमन कर दंड लगाना।
कितना अच्छा लगता है।।
सुबह सवेरे जल्दी उठकर,
मम्मा के संग
पूरे घर में
अपने हाथों पोंछा लगाना।
कितना अच्छा लगता है।।
सुबह सवेरे जल्दी उठकर ,
फ्रेश होकर
नहा धोकर
मंत्र पढ़कर दीप जलाना।
कितना अच्छा लगता है।।
सुबह सवेरे जल्दी उठकर,
सब कामों के
बाद साथ में
चाय दूध बना कर पीना।
कितना अच्छा लगता है।।
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चलो ज्ञान का दीप जलायें (गीतिका)
चलो ज्ञान का दीप जलायें।
जो सोया हैं उसे जगायें।।
मन के रीते उस आंगन में।
सुंदर सा हम फूल खिलायें।।
रूठ गए हैं जो अपनों से।
मिल कर सारे उसे मनायें।।
मचल गया है रोता बच्चा।
एक खिलौना उसे दिलायें।।
जन्म दिवस जब आए अपना।
बड़ पीपल के पौध लगायें।।
कला हमें जो आती हो तो।
हर्षित हो कर उसे दिखायें।।
नेह राशि को निज छोनों पर।
सोच समझ कर चलो लूटायें।।
हमको करते हैं जो उपकृत।
उनके प्रति आभार जतायें।।
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अंजाने का कोई कॉल (नवगीत)
जब भी आए मोबाइल पर, अंजाने का कोई कॉल।
रिसीव कभी न करना भाई,उड़ जाएगा वरना माल।।
नाम तुम्हारा लेकर पूछे,जरा बताओ क्या है हाल।
मीठी वाणी के झांसे में, समझो आया बस है काल।।
रखे बचा कर जो हैं पैसे,उड़ा सभी,कर दें कंगाल।
पिन ओटीपी नहीं बताना, वरना उड़ जाए बेताल।।
रिसीव कभी ……..!
डाकू जब घोड़े पर आते थे,सबको हो जाता था ज्ञात।
बड़े बुजुर्गों से सुनते हैं, वो करते थे जब भी बात।।
अब तो आते पवन अश्व पर,चलते भाव भरी वह चाल।
इसीलिए कहता हूं भैया, रखना बच जाने की ढाल।।
रिसीव कभी…….!
मेहनत सालों तक है करते,खाते सादी रोटी दाल।
श्वेत सभी हो जाते सिर में,जो होते हैं काले बाल।।
बे लगाम घोड़े पर बैठे,आते डाकू सब विकराल।
लुट कर सीधे सादे दादा,केवल रोते हुए निढाल।।
जब भी आए मोबाइल पर, अंजाने का कोई कॉल।
रिसीव कभी न करना भाई,उड़ जाएगा वरना माल।।