शबनम मेहरोत्रा, कानपुर
मेरे प्रियतम
मेरे प्रियतम तुम नाराज न हो
मैं तुम्हे जगाने आई हूँ
मृदु भावो से गीत लिखे
जो तुम्हें सुनाने आई हूँ
मेरे मन में उठती उमंगों को तुम
समझ सके न हो शायद
समझ गए तो फिर फैला दो
अपनी बाहों का ये ज़द
मेरे मचल रहे इस यौवन की,
मैं बात बताने आई हूँ
तुम इतने अनाड़ी भी तो नहीं
जो बात न मेरी समझोगे
मेरा तन रसवंती मधुशाला
उतर के इसमें पार लगोगे
तुम संग गुज़रे जो भी लम्हें
वो सब दोहराने आई हूँ
हो तुम्हें पसन्द वो बात करूँगी
ना अब मैं शरमाऊँगी
“शबनम”को तुमने खोल दिया
अब क्या तुम से घबराऊँगी
कुछ अदा हमारी है ऐसी
जो तुम को बहलाने आई हूँ
मृदु भावों से गीत लिखे जो
तुम्हें सुनाने आई हूँ
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सतत प्रेम
प्रेम में व्यग्र होना
प्रेम नही ,काया प्राप्ति का
प्रमाण है ।
प्रतीक्षा ही सतत प्रेम की —
निशानी है ।
यह स्थाई है ,नही आनी जानी है
उग्र होना ,व्यग्र होना
प्रेम में यह नहीं होता
प्रेम का पौधा समर्पण
के खाद से बढ़ता है
इसकी बेलें मीठी वाणी से
आकाश चढ़ता है ।
सतत प्रतीक्षा प्रेम फल देगा
आज नही तो यह कल देगा
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मन
मन जब अधीर होने लगे
अत्यधिक पीर होने लगे
परिस्थितियाँ बेबस करदे
जब निराशा मन में भरदे
उस घड़ी याद करना ईश्वर को
अनेक राह तुम्हें बतला देंगे
किधर जाना है दिखला देंगे
द्रोपदी सा पूर्ण समर्पण करे
कैसे न वे दुख तुम्हारा हरे
बोले दो सब उस अनश्वर को
सारे सपने प्रभु सजा देंगे
याद रखो न वे दगा देंगे
सुदामा सा बाहों में कस जाएँगे
हनुमान सा दिल में बस जाएँगे
सर्वस्व निछावर हो परमेश्वर को
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धूप छाँव
कल्पनाओं में खेत खलिहान धूप छाँव है
टेढ़ी मेढी पगडंडियों पर चलते नंगे पाँव है
बारिश में टपकती छप्परे और रतजगा हुवा
ऐसा लगता है हमारा जीवन एक गाँव है
जैसे द्रोपदी करके समर्पण
कृष्ण से की थी याचना
फिर तो कृष्ण ने खुद से आकर
बढ़ा दिया था बसना
जिसमे होता पूर्ण समर्पण डूबे न उनकी नाव
पूरा करना स्वार्थ का अपना होता क्षणिक लगाव
शक्ति की भक्ति में होता कहा समर्पण भाव
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