रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर
वे दोनों भागकर जंगल में छुप गए लेकिन ये इलाका उन्हें सुरक्षित नहीं लगा।
उसका प्रेमी ये संकट देख उसे छोड़कर कहीं और भाग गया और ये बेसहारा कोई आश्रय ढूंढती हुई इस डाक बंगले तक आ गई। यहाँ मेरे पाँवों पर पड़कर मुझसे आश्रय मांगने लगी क्योंकि वह अब गाँव में लौटने लायक न रही थी। मुझे उसकी ये हालत देखकर दया आ गई और उसे यहाँ रख लिया पर उसकी यहाँ मौजूदगी को छुपाता रहा ताकि इसका राज गाँव वाले न जान जाएं वरना वे इसे खोजकर इसकी हत्या कर देते। मैंने आप लोगों को भी भ्रम में रखा। मैंने उसे बेटी की तरह सुरक्षित रखा है साब। उसकी खबर किसी को न लगे इसलिए मैंने इस झूठ को भी हवा दी थी कि इस डाक बंगले में भूत है। आप लोगों से भी झूठ बोला ताकि आप कोई खोज न करें। मेरी आपसे विनती है कि इस राज को किसी पर जाहिर न करना साब।”
बात को समझकर प्रताप ने पुन: पूछा –
“लोग कहते हैं कि पहले एक अफसर यहाँ ठहरे थे लेकिन वे बुखार आने पर दूसरे दिन ही चल बसे। क्या वे यहाँ के माहौल से डर गए थे?”
” ऐसा कुछ नहीं था साब। वो साब पहले ही तेज बुखार से पीड़ित आये थे। शहर जाने का विकल्प न देख रात भर के लिए यहाँ रुक गए थे। इस दौरान उनका बुखार और तेज हो गया। जैसे तैसे उन्हें मैंने सरकारी गाड़ी बुलवाकर अस्पताल भिजवाया था। वहाँ उनकी मृत्यु हो गई।” करतार ने सफाई दी।
प्रताप सब समझ गया और फिर गंभीरता से सोचते हुए बोला, “अगर मैं तुम्हारी इस समस्या का स्थाई समाधान कर दूँ तो?”
“कैसे हुजूर? मैं समझा नहीं।”
“उस कन्या से शादी करके।”
करतार सिंह की आँखों मे कृतज्ञता का भाव उमड़ आया और बोला, “ऐसा करके आप मुझ नाचीज पर बड़ा एहसान करेंगे लेकिन मुझे डर है कि यहाँ रहते हुए एक न एक दिन गाँव वाले इस अभागन को ढूँढ ही लेंगे। इसी बात से मैं चिंतित रहता हूँ।”
“अब तुम्हें चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि मैं यहाँ से किसी और प्रदेश में ट्रांसफर होकर जाने वाला हूँ। गाँव वाले कभी नहीं ढूँढ पाएंगे।” प्रताप ने कहा।
मंगल जो अब तक खाना खा रहा था वह मुँह धोने बाहर आया और प्रश्नवाचक दृष्टि से प्रताप को देखने लगा। प्रताप मुस्कुरा कर डाइनिंग टेबल पर खाना खाने बैठ गया।
अगली सुबह करतार सिंह ने अपनी मोटर साइकिल से पेट्रोल निकाल कर प्रताप की मोटर साइकिल में भर दिया और प्रताप और मंगल, करतार सिंह से जल्दी ही वापिस आने का वायदा करके निकल गये। प्रताप ने जाते हुए करतार सिंह के पीछे खड़ी उस कन्या को देखा जो शायद घूँघट की ओट से प्रताप को जाते देख रही थी।
(काल्पनिक रचना)
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