रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर
उस सरकारी डाक बंगले में रात्रि प्रहर कोई नहीं ठहरा करता था सिवाय करतार सिंह के जो डाक बंगले का चौकीदार था। कहते हैं उस पर माया का प्रभाव था या वह हनुमानजी का भक्त था इसलिए उसका अब तक कुछ नहीं बिगड़ा था।
एक बार एक वन अधिकारी ने उस डाक बंगले में रुकने की हिम्मत की थी, दूसरे दिन बेहद बुखार की हालत में उसे अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था और दूसरे ही दिन वो भगवान को प्यारा हो गया था। लोग कहते थे कि वो भूत बंगला था। बंगले के चौकीदार पर भी संदेह हुआ था लेकिन कोई प्रमाण न मिलने से उसका कुछ नहीं हुआ।
प्रताप की पोस्टिंग नये वन अधिकारी के पद पर उसी क्षेत्र में हुई थी। एक बार वह अपने सर्वे के दौरान साइट पर काफी लेट हो गया था, उसके साथ में उन्हीं का कर्मचारी मंगल भी था। अंधेरा होने को था। जंगल में वैसे भी अंधेरा जल्दी ही होने लगता है। मोटरसाइकिल में इतना पेट्रोल भी नहीं बचा था कि वे शहर जा पाते।
“मैंने सुना है यहाँ पास में सरकारी डाक बंगला है? ” प्रताप ने मंगल से पूछा जो इस क्षेत्र की जानकारी रखता था।
मंगल बोला, “आपने ठीक सुना साब लेकिन उस बंगले में कोई ठहरने का जोखिम नहीं लेता! “
“क्यों भला? “
“ज्यादा तो कुछ जानता नहीं हूँ लेकिन एक अधिकारी महोदय जिद करके बंगले में ठहर गए थे। दूसरे ही दिन बीमार होकर चल बसे! लोग तब से इसे भूत बंगला कहने लगे।
मंगल की बात पर प्रताप ने मुस्कुराते हुए कहा,
“वे पहले से ही बीमार रहे होंगे, भला बंगला किसी को कैसे बीमार कर सकता है? भूत-वूत कुछ नहीं होता। “
मंगल ने सोचा आज वह भी लपेटे में आयेगा। खैर, जो होगा, देखा जायेगा।
दोनों डाक बंगले के परिसर में आ पहुंचे। उन दोनों को आता देखकर डाक बंगले के चौकीदार करतार सिंह ने उनका अभिवादन किया। उसने कहा,
“आप दोनों बैठिये, मैं चाय लेकर आता हूँ।”
प्रताप और मंगल बरामदे में बिछी बैंच पर बैठ गए।
प्रताप ने मंगल से कहा, “मुझे तो कुछ भी यहाँ असामान्य नहीं लग रहा।”
“जी, साब। ” मंगल ने संक्षिप्त उत्तर देना ही उचित समझा।
कुछ ही देर में सामने से, घूँघट डाले एक छरहरी महिला ट्रे में दो कप चाय लिये चली आ रही थी जिसकी उम्र उसकी कद काठी को देखते हुए तेईस या चौबीस साल की लग रही थी। उसे कन्या या बाला कहा जाना ही ठीक था।
मंगल चौंका और बोला, “ये कौन है? “
क्रमश:
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