-विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
महेश जी यह सुनकर बोले- “ये सामाजिक आयोजन तो समाज की पिछले महीने की मीटिंग में ही सुनिश्चित हो गया था। समाज की मीटिंग में आपका आना भी अपेक्षित रहता है। चलो, आप नहीं भी आये तब भी हमारी समाज की पत्रिका जो आपके पास भी हर माह आती है, उसमें भी इस सामाजिक आयोजन का विस्तृत वर्णन दिया हुआ था जो हम आशा करते हैं, आपने भी पढ़ा होगा। “
“महेश प्रसाद जी, समाज की पत्रिका मेरे पास आती अवश्य है लेकिन सभी कुछ मैं पढ़ता होता तो आज इस स्थिति में नहीं होता। मुझे ऐसी छोटी मोटी पत्रिका देखने का समय ही नहीं मिलता और मेरा कार्य पत्रिका के स्तर से कहीं मेल भी नहीं खाता!” श्री जगत नारायण जी ने कहा।
“… तो हम ये मान लें कि आप यह आमंत्रण स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं?” महेश प्रसाद जी ने तमक कर कहा।
तभी उपाध्याय महाराज जी ने बात सम्हालने की मंशा से हस्तक्षेप-सा करते हुए श्री जगत नारायण जी से कहा – “वत्स! कोई निर्णय लेने से पूर्व आपको ये सुनिश्चित करना चाहिए कि महत्वपूर्ण कौन है, अपना कौन है? क्या हर समय काम में आने वाला आपका समाज या एक विदेशी लेखिका मित्र? आप विदेशी लेखिका का कार्यक्रम स्थगित भी करवा सकते हैं। यदि वो सच्ची मित्र है तो उस कार्यक्रम को आगे भी बढ़ा सकती है। आपको वरीयता अपने सामाजिक आयोजन को देनी चाहिए जो एक निश्चित मुहूर्त होने पर करवाना सुनिश्चित हुआ है।”
श्री जगत नारायण जी ने कुछ सोचते हुए कहा – “श्रेष्ठ श्री उपाध्याय महाराज जी, मैं आपका सम्मान करता हूँ पर इस संदर्भ में मैं एक बात कहना चाहूंगा कि आज मैं एक विश्व स्तरीय ख्याति प्राप्त साहित्यिक प्रतिभा हूँ जिसे अपने देश के अतिरिक्त विदेशों में भी सम्मान मिलता है, इसमें हमारे समाज का क्या योगदान है? आज मेरे गौरवांवित होने का कारण मैं स्वयं हूँ, न कि हमारा समाज। आज तक मैंने अपने कारण कभी समाज से एक फूटी कौड़ी भी नहीं ली। ऐसे समाज की दुहाई देकर आप मेरे महत्वपूर्ण कार्यक्रम को स्थगित कर देने की बात कह रहे हैं जो पूर्व निश्चित हो चुका है, जिसके लिए मैं जुबान भी दे चुका हूँ, मेरी हवाई टिकट भी बुक हो चुकी है। क्या ये मजाक नहीं? मैं किसी को क्या इस प्रकार जुबान देकर मुकर सकता हूँ?”
उपाध्याय महाराज जी के संकेत पर दोनों वरिष्ठ सज्जन भी उठ खड़े हुए।
उपाध्याय महाराज जी ने कहा – “वत्स! मैंने आपके विषय में सुना तो बहुत था, परंतु परिचय आज ही हुआ है। खैर, चलते हैं।”
क्रमश:
(काल्पनिक रचना)