-विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
“जी, हमने इतना नहीं सोचा था। हम ज्यादा समय नहीं लेंगे आपका।” साथ आये दूसरे सज्जन महेश प्रसाद जी ने उत्तर दिया।
“वत्स! इन लोगों का मेरे साथ आने का मंतव्य यह है कि..,” श्री जगत नारायण जी कुछ बोलते, उनसे पहले ही उपाध्याय महाराज जी बोले- “समाज ने एक वार्षिक आयोजन रखा है जिसमें समाज के उभरते नवांकुरों व नवीन प्रतिभाओं का उत्साह वर्धन किया जाना है। उनके वे कार्यक्रम प्रदर्शित किये जाने हैं जिन पर उन्होंने इस बार अभूतपूर्व उपलब्धियां अर्जित की हैं। उनके लिए समाज ने भी कुछ प्रमाण पत्र बनाये हैं तथा इनाम इकट्ठे किये हैं जो उन नवांकुर कलाकारों को आपके करकमलों द्वारा वितरित करवाने का निश्चय समाज में हुआ है। पिछले अनुभवों के अनुसार हमारे समाज ने पहले भी एक दो कार्यक्रमों में आपको ससम्मान आमंत्रण भेजा था किंतु कुछ अदृश्य कारणों से आपका आना संभव न हो सका। मेरी आपके समक्ष व्यक्तिश: उपस्थिति ये दर्शाने के लिए काफी है कि इस बार का आयोजन महत्वपूर्ण है अत: आपका इसमें शामिल होना अनिवार्य है। समाज ने आपके उदाहरण दे देकर नव प्रतिभाओं में जो उत्साह भरा है उसके कारण आपसे प्रशस्ति पत्र व उपहार पाकर उनमें नई ऊर्जा आयेगी।आप इस आमंत्रण को कृपया स्वीकार करें।”
उपाध्याय महाराज जी की बात सुनकर श्री जगत नारायण जी बोले – “कार्यक्रम कब आयोजित होना निश्चित हुआ है?”
“अगले सप्ताह रविवार को।” महेश प्रसाद जी ने तुरंत उत्तर दिया।
कुछ विचार मग्न मुद्रा में श्री जगत नारायण जी बोले – “हमारे समाज में एक बड़ी खराबी ये है कि कुछ लोग मिलकर सारा कार्यक्रम सुनिश्चित कर लेते हैं और जिसे मुख्य अतिथि बनाना चाहते हैं, उसे जरा सी भी भनक नहीं होने देते। अब देखिये, अगले हफ्ते मेरा डेनमार्क में एक अंग्रेजी लेखिका की पुस्तक का विमोचन करने जाना पूर्व में निश्चित हुआ है। उस लेखिका ने बड़े अनुनय से वहाँ आमंत्रित किया है। यदि मुझे समाज के इस आयोजन की पूर्व में सूचना होती तो मैं उस लेखिका का आमंत्रण क्यों स्वीकार करता?”
क्रमश:
(काल्पनिक रचना)
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