रचनाकार : पंकज शर्मा “तरुण “, पिपलिया मंडी (म.प्र.)
ईमान
आज आदमी धन पाने को,बेच रहा अपना ईमान।
चांदी के सिक्कों की खातिर,मार रहा कैसे इंसान।।
शहर गांव या गली मोहल्ला, सब में होती अंधी दौड़।
लाख टके की बात न होती,होती अब तो लाख करोड़।।
मंदिर मस्जिद या गुरुद्वारा,नहीं अछूता अब शमशान।।
चांदी के सिक्कों की खातिर…..
कोयल गीत सुनाती डर कर,भूल गई सारे सुर ताल।
सांप छुपे रहते बाहों में,समझ नहीं आती अब चाल।।
जहर बुझे बीजों को खा कर, मोर दे रहे अपनी जान।
चांदी के सिक्कों की खातिर…..
देश द्रोह करने वालों को,मिलते देखा है सम्मान।
सेंध लगाते हैं सेना में, निर्दोषों की लेते जान।।
वैभव शाली बन बैठे हैं,जो है महा भ्रष्ट बे ईमान।।
चांदी के सिक्कों की खातिर……
आज आदमी धन पाने को,बेच रहा अपना ईमान।
चांदी के सिक्कों की खातिर,मार रहा कैसे इंसान।।
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जय माता दी
ऐसा वर दो मुझको माता,भक्ति में रम जाऊं मैं।
दीप जला कर सांझ सवेरे,तेरे ही गुण गाऊं मैं।।
आंगन में खुशियों की कलियां,खिल कर महक बिखेरेंगी।
आ जाए जो कोई बैरी, सबक सिखाने घेरेंगी।।
भजनों के फूलों की माला, सुर के साथ चढ़ाऊं मैं।
दीप जला कर….
करती हो तुम शेर सवारी,असुरों का वध करती हो,
भक्तों की खाली झोली को,दया दृष्टि से भरती हो।।
मन मंदिर को मैं श्रद्धा से, माते खूब सजाऊं मैं।
दीप जला कर….
नव राते जगराते करता,निराहार ही रहता हूं।
नाम जपूं मैं नित्य निरंतर,तेरी जय हो कहता हूं।।
ढोल मजीरे तव आंगन में,ढोली से बजवाऊं मैं।।
दीप जला कर…
ऐसा वर दो मुझको माता,भक्ति में रम जाऊं मैं।
दीप जला कर सांझ सवेरे,तेरे ही गुण गाऊं मैं।।
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अंधेरे की जीत
अंधेरे की जीत ने, बदले सब आयाम।
मदिरालय होने लगे, जैसे चारों धाम।।
जैसे चारों धाम,युवतियां मिलती पीतीं।
त्यागी सारी लाज,मस्त मद हो कर जीतीं।।
सुनो तरुण की बात,भूलती सातों फेरे।
मन भावन से आज,हुए अब तो अंधेरे।।
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देश को जो तोड़ रहे
देश को जो तोड़ रहे,धारा को जो मोड़ रहे।
पहचान उनकी तो, करवाना चाहिए।।
सख्त हो जो नियम तो,सुधरें करम सब।
माने नहीं नियम तो, मनवाना चाहिए।।
भेद भाव का जहर, ढहा रहे हैं कहर।
ऐसे सांपों को पिटारा,बतलाना चाहिए।।
कुर्सी को पाने हित, छोड़ रहे नेता नीत।
ऐसे नेताओं को नीत, सिखलाना चाहिए।।
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बड़ी ही क्रूर यह दुनिया
बड़ी ही क्रूर यह दुनिया गरीबों को सताती है।
नशे को बेच कर इसको बुराई भी बताती है।।
घरों में बैठ कर वामा बुरे निज भाग को कोसे।
घुटे भीतर ही भीतर में व्यथा को पर छुपाती है।।
दया आती है जब देखे तड़पता दर्द से प्रिय वर।
बिलखती है भड़कती है नसीबा बद बताती है।।
भले कितना बुरा भरतार हो पूजा करे माई।
पधारें देर से भी तो गरम खाना खिलाती है।।
कहे संसार जो इसको है देवी रूप में वामा।
नहीं यह बात भी मिथ्या तभी तो यह पुजाती है।।