रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
झुकी-झुकी नज़र!
झुकी-झुकी नज़र से नज़र मिलती नहीं है!
ये नव-पीढ़ी की नव संस्कृति जँचती नहीं है!
सभी स्क्रीन पर आता है तो क्यूँ देखे ऊपर?
कोई खड़ा है सामने, नज़र उठती नहीं है!
प्रवेश करते हैं घर में तो फोन करते हुए,
घर के बुजुर्ग से नज़रें कभी मिलती नहीं है!
लगे बिस्तर पे चाय पीने, नाश्ता करने!
सदस्यों से ड्राईंग रूम में बनती नहीं है!
होके तैयार अपने रूम से निकले बन-ठन,
थाम कर लंच बॉक्स, सवारी रुकती नहीं है!
सुनाएँ क्या जिनके कानों में इयर फोन लगे,
उनकी संगीत की चाहत कभी थमती नहीं है!
एक छुट्टी का दिन होता है सबसे मिलने का,
दोपहर तक ‘उनकी’ नींद ही खुलती नहीं है!
एक चुप लगाकर बुजुर्ग बैठ जाते हैं,
लगता है उनकी शिकायत कभी मिटती नहीं है!
गैजेट्स आदमी की सुविधा के लिए हैं बने!
गैजेट्स की नौकरी से फुर्सत मिलती नहीं है!
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वो मिलन की शब बन गई, पूनम की रात!
जुबाँ पर बोल नहीं उभरे, आँखें नम न हुईं!
वो पत्थर की बन गई, मगर बेदम न हुई!
सजा के थाली, तिलक कर दिया माथे मेरे!
उठा के थमा दी बन्दूक उसने हाथ मेरे!
नयन जो कह रहे थे बात, उसकी समझा मैं!
“जाओ तुम, देश के दुश्मन को मार दो पहले!”
” मिलन की रात अधूरी रही, तो गम क्या है?
जीत का जश्न मनायेंगे, मिलन से पहले!”
जीप में चढ़ गया मैं और साथियों के साथ!
मुड़ के फिर देखने का मौका न दिया उसने!
फिजां में लाल रंग बिखरा युद्ध के रण में!
धुआँ धुआँ सा जल रहा था सबकी आँखों में!
उड़ेगी चौकियाँ दुश्मन की, बनी भूमि पर!
लगेगी किसको मौत की गोली, सीने में?
कौन दुश्मन को खदेड़ेगा उसके ही घर तक?
कौन फहरायेगा ध्वज शत्रु को फतह करके?
उसकी आँखों में एक इंतजार था मेरा!
उसने भेजा था मुझे रण में, भरोसा करके!
उसकी कातर नजर ने देखे वो सोये चेहरे,
लिपट कर आये जो नौजवां थे झण्डे में!
उसके विश्वास ने मुझमें वो जगाया साहस!
लौट आया मैं घर पर, चौकियाँ फतह करके!
वो मिलन की शब बन गई, पूनम की रात!
जब मैंने उसे लगाया पहली बार गले!