रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
रतन जहाँ रहता था वहीं पास में खेल का कोर्ट था जहाँ रतन अपने मित्र सुनील के साथ बैड मिन्टन खेलने जाया करता था। कुछ ऐसी आदत पड़ गई थी उसके साथ खेलने की, कि शाम को रुका ही नहीं जाता था। कभी वह किसी अन्य कार्य से अपने घर से चलकर सुनील के घर से गुजरते हुए बाजार की तरफ भी जा रहा होता था तो सुनील को न जाने कहाँ से महक आ जाती थी और वो उसे पुकार लेता था –
“याद है न! आज शाम को ठीक छ: बजे, कोर्ट में…! “
“याद है भाई, आ जाऊंगा!” रतन मुस्कुरा कर कहता हुआ आगे बढ़ जाता था।
एक सप्ताह पहले, जैसा सुनील कई दिनों पहले से कह रहा था कि वह विदेश जायेगा, वह विदेश चला गया। जाते हुए सुनील रतन से मिल भी नहीं पाया था। तब से कोर्ट में बैड मिन्टन खेलने का उनका तारतम्य टूट गया था।
कुछ दिन रतन ने यूँ ही बिताए परन्तु एक दिन वह चाहते न चाहते हुए सुनील के मकान में दाखिल हुआ। वहाँ सुनील के वृद्ध पिता व माता बैठे मिले। उसने उनका अभिवादन किया और पास में पड़े मोढ़े पर बैठ गया।
“सुनील के बिना, सूना-सूना सा लगता है, अंकल। ” रतन ने बात शुरू की।
“हाँ बेटा!” सुनील के पिता काँपती सी आवाज में बोले।
“वह कब तक आयेगा?”
“कुछ कहा नहीं उसने। शायद छह महीने बाद! कह रहा था, खर्चा भेजता रहेगा।” सुनील की माँ बोली।
“…. और आपकी देखभाल?” रतन न चाहते हुए भी बोल गया।
“ईश्वर है न! ” पिता मायूसी से बोले।
“घर का काम करने माई आती है।” माँ बोली।
“अच्छा, चलता हूँ। ” रतन बोला – ” कुछ जरूरत हो तो बताना। “
“कभी-कभी आ जाया करना, बेटा। ” पिता पुन: काँपती सी आवाज में बोले!
रतन इधर कोई पंद्रह दिनों से सुनील के माता-पिता का हाल चाल जानने नहीं गया था। उसे खुद ही इस लापरवाही का एहसास हुआ तो एक दिन वह एकाएक सुनील के मकान में प्रवेश कर गया।
वहाँ एक लोकल डॉक्टर सुनील के पिता का बीपी जाँच रहा था। बोला – “इन्हें घर में कैद रहने की बजाय रोज घूमने फिरने जाने की जरूरत है । ये टेबलेट लेते रहना।”
डॉक्टर के जाने के बाद सुनील के पिता ने तकिये के नीचे से एक पत्र निकाला और रतन को दिया। पत्र विदेश से आया था।
“देखना बेटा, सुनील ने क्या लिखा है? ” पिता बोले।
रतन ने पत्र पढ़ा, लिखा था –
‘माँ पिताजी को प्रणाम! यहाँ मैं अच्छी तरह सेटल हो गया हूँ। अगले हफ्ते यहीं एक ऑफिस फैलो से कोर्ट मैरिज कर रहा हूँ। डॉक्टर को मैंने आपकी समय समय पर जाँच के लिए कह दिया है। अभी मैं लम्बे समय तक आ नहीं सकूँगा। माफ करना। आपका सुनील।’
माँ पिता रतन को अवाक् होकर देखने लगे।
जैसे जैसे वक्त बीतता गया, सुनील के घर वापसी की संभावना धूमिल होती गई। यहाँ तक कि उसने माता पिता का हालचाल जानने तक के लिए संचार माध्यमों का उपयोग लगभग बंद कर दिया था।
उसने विदेश में ही घर बना और बसा लिया था। लगता था वह शायद भूल चुका था कि स्वदेश में भी उसका पैत्रक घर है, माँ बाप हैं।
एक वर्ष बाद रतन ने सुनील के पिता के कहने पर वहाँ उनके लम्बे चौड़े मकान के गेट पर वृद्धाश्रम का बोर्ड लगवा दिया। रजिस्ट्रेशन भी ले लिया। सुनील अब कोई खर्चा नहीं भेजता था। रतन अब उस वृद्धाश्रम का इंंचार्ज हो गया था। उसने इस विषय में सुनील को पत्र लिखकर भेज दिया था कि अंकल की इच्छा से उसने मकान में वृद्धाश्रम खोला है जिसमें अंकल व आंटी रहकर खुश हैं। सुनील का जवाब भी मिला था जिसमें उसने राहत की साँस ली थी और रतन को अपना सच्चा मित्र बताया था।
इसके बावजूद रतन के दिमाग में कभी-कभी ये प्रश्न उठकर उसे कचोटने लगता था कि कैसे एक मनुष्य का, अपने ही जन्मदाता और जन्मभूमि से इतनी शीघ्रता से मोहभंग हो जाता है?
(काल्पनिक रचना)