रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
सूची तो लंबी हो सकती है लेकिन अपनी बात के समर्थन में मैं कुछ रचनाकारों और कृतियों का उल्लेख करना चाहूँगा- बाल उपन्यास रंगीली, बुलेट और वीर ( समीर गांगुली) , संजीव जायसवाल का बाल उपन्यास होगी जीत हमारी , मिश्री मौसी का मटका (सुधा भार्गव), मधु पंत की कृति टुँइया’ आदि। प्रदीप शुक्ल की कविताएँ, दिशा ग्रोवर कविताएँ (शब्दों की शरारत) और बाल नाटक (बाघू के किस्से) आदि का भी उल्लेख कर सकता हूँ।
कल्पना पहले के साहित्य में भी होती थी और आज के साहित्य में भी उसके बिना काम नहीं चल सकता। अंतर यह है कि आज के बालक को कल्पना विश्वसनीयता की बुनियाद पर खड़ी चाहिए। अर्थात वह ’ऐसा भी हो सकता’ है ’ अथवा’ ‘ऐसा भी हुआ होगा’के दायरे में होनी चाहिए अन्यथा वह रद्दी की टोकरी में फेंक देगा। दूसरे शब्दों आज का बालसाहित्यकार ऐसी रचनाएं नहीं देना चाहता जो अन्धविश्वास, सामन्तीय परम्पराओं, जादू -टोनोँ,अनहोनियो अथवा निष्क्रियता आदि मूल्यों की पोषक हों। आज की कहानियों में भी भूत, राजा, परी आदि हो सकते लेकिन वे अपने पारम्परिक रूप से हटकर, ऊपर संकेतित पुरानेपन से अलग तरह के होते हैं। आज की कहानी की परी ज्ञान परी हो सकती है ।
यह बात स्वीकृत है कि साहित्य के रूप में बालसाहित्य की आज अपनी पहचान है। यूँ आधी 18वीं शताब्दी के बाद से बालसाहित्य को साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान मिलनी शुरु हो गई थी। 20वीं शताब्दी में तो यह पहचान और भी अधिक समृद्ध हुई। यह बात अलग है और जिसका पहले संकेत दिया जा चुका है कि इस पहचान को जितनी गम्भीरता से लिया जाना चाहिए, उसके लिए संघर्ष जारी है। कम से कम हिंदी की दुनिया में। इस पहचान को अंतत: साहित्य की पहचान के रूप में महत्त्व अर्जित करना है।
भारत की प्रमुख भाषाओं मसलन असमी बंगाली, मराठी, तमिल, कन्नड़, हिन्दी, मलयालम, उड़िया आदि के आधुनिक बाल साहित्य के इतिहास पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि (अपने वास्तविक अर्थों में) इसका प्रारम्भ 19 वीं सदी के अंत और 20 वीं सदी के प्रारम्भ में हुआ था। कुछ अन्य भाषाओं में यह बाद में शुरु हुआ था। उदाहरण के लिए एक उत्तर-पूर्व की भाषा मणिपुरी में, मुद्रित रूप में बाल साहित्य की जरूरत 1940 के दशक से 1950 के दशक में महसूस होने लगी थी।
1947 के बाद बाल साहित्य की अनेक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ। प्रमुख भाषाओं के मामले में, बालसाहित्य की शुरुआत के कारणों में से एक शिक्षा के लिए पाठ्य पुस्तकों की तैयारी की जरूरत था। ईसाई मिशनरी स्कूल स्थापित किए गए और उन के कारण नए प्रकार की शिक्षा प्रणाली ने नई शैली की कहानियां लिखने के लिए प्रेरित किया।
बंगाली में, जोगिंद्रनाथ सरकार द्वारा 1891में लिखित कहानियों की पुस्तक ‘हाँसी और खेला’ (हँसना और खेलना) ने, रवींद्रनाथ टैगोर के अनुसार पहली बार कक्ष-कक्षा- परंपरा को तोड़ा और यह बच्चों के लिए पूरी तरह मनोरंजनदायक बनी। संयोग से कुछ सीख भी लेना एक अतिरिक्त लाभ था। यह एक ऐसा प्रतिमान है जो आज के हिंदी उत्कृष्ट हिंदी बालसाहित्य के लिए भी चुनौती के रूप में स्वीकार कर लिया गया है।
हिन्दी सहित भारतीय बालसाहित्य की बात जब भी शुरू होती है, हम पृष्ठभूमि के रूप में संस्कृत और पाली भाषा में लिखे हमारे महान विश्व प्रसिद्ध क्लासिक्स के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट किए बिना नहीं रह सकते। ये सभी भारतीय भाषाओं के बालसाहित्य के स्रोत के रूप में माने जाते हैं । ये क्लासिक्स हैं- ‘पंचतंत्र’, ‘हितोपदेश'( पंचतंत्र से थोड़े हेरफेर के साथ नारायण पंडित द्वारा लिखित), ‘कथासरित्सागर ‘ ( कश्मीर निवासी सोमदेव द्वारा रचित) संस्कृत में हैं और ‘जातक’ (बोधिसत्व के पिछले जन्मों के विषय से सम्बद्ध कहानियां ) पाली में है।
इनके अतिरिक्त महाभारत और रामायण जैसे महान महाकाव्यों ने भी बाल कहानियों के बड़े स्रोत के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
(क्रमशः)