रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
राष्ट्रबंधु जी ने भी लिखा है, “बाल साहित्य साझा साहित्य है।“ और यह भी कि बाल साहित्य को साझा न मानने के कारण उसके प्रति उपेक्षा शुरु हो जाती है।
अपनी पुस्तक’ ’बालगीत साहित्य’ में निरंकार देव सेवक ने लिखा है-“स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बढ़ती हुई रुचि और पढ़ने की भूख का अनुमान करके एक साथ सैंकड़ों नए लेखकों ने सभी विधाओं में लिख लिखकर बाल साहित्य का भण्डार भरना प्रारम्भ कर दिया। विराज एम०ए०, गोकुल चन्द सन्त, नृसिंह शुक्ल, प्रशान्त, व्यथित हृदय, नरायन व्यास, विशम्भर सहाय प्रेमी, शारदा मिश्र, शिवमूर्ति वत्स, हरिकृष्ण देवसरे, मनहर चौहान ने अनेक पौराणिक, ऐतिहासिक और परी कथायें बच्चों के लिए लिखीं। वैज्ञानिक बाल कथायें रमेश वर्मा, ……रत्न प्रकाश शील, जयप्रकाश भारती आदि की बहुत पसन्द की गईं।”
इस आकलन से बाल साहित्य के परिदृश्य से जुड़ा कोई भी चौंक सकता है, क्योंकि देवसरे को परी कथा आदि के विरोधी के रूप में जाना जाता है और इसके लिए उनके अपने अनेक आवेशपूर्ण वक्तव्य और घोषणाएं भी जिम्मेदार हैं जबकि जयप्रकाश भारती को मात्र पौराणिक, ऐतिहासिक और परी कथाओं वाली राह का लेखक मान कर प्रस्तुत किया जाता रहा है। इधर -उधर टटोला तो पाया कि परी कथाओं को लेकर देवसरे जी के मत को शायद ठीक से नहीं समझा गया है।
वे झूठे कल्पनालोक से बचने की बात तो करते हैं लेकिन समूची ’परीकथा का विरोध नहीं करते। उन्हीं के शब्दों में,” परी कथाएं सदियों से बच्चों का मन बहलाती रही हैं। नव-बालसाहित्य की रचना के सिलसिले में एक आवश्यकता यह भी अनुभव की गयी कि बच्चों को झूठे कल्पना लोक से बचाने के लिए जरूरी हॆ कि परीकथाओं के कथ्य को नये आयाम दिए जाएं।” वे आगे लिखते हैं-“परी कथाओं के खजाने को अपने शब्दों में बार-बार लिखकर बालसाहित्य-सर्जना का दम भरने वाले लेखकों के लिए यह भी एक चुनौती थी। उन्होंने इसे समूची ’परीकथा’ विरोध माना, जबकि वास्तव में परीकथा की विधा को स्वीकार करते हुए उसके कथ्य की मांग की गयी थी।” (नव बालसाहित्य के दिशादर्शक, संचेतना, दिसम्बर, 1982, पृ0 215)|
कुछ ऐसी ही बात उन्होंने इसी लेख में ’राजा’ को कथा का पात्र बनाने के संदर्भ में लिखी है। उन्हें समझने का विशिष्ट दावा करने वालों को गौर करना होगा कि परी, राजा, भूत, पौराणिक पात्र, पशु-पौधों आदि के प्रयोग से उन्हें दिक्कत नहीं थी बशर्ते कि रचनाकार उनसे जुड़ी कथ्यगत रुढ़ियों को तोड़ने में समर्थ हो। जयप्रकाश भारती जी की भी उनके विरोधियों ने, बिना उनको ठीक से समझे,गलत-सलत छवि प्रस्तुत करने में भरपूर योगदान किया है। जयप्रकाश भारती की ही निम्न कविता-पंक्तियों पर ध्यान दिया जाए –
राजा का तो पेट बड़ा था
रानी का भी पेट घड़ा था।
खूब वे खाते छक-छक-छक कर
फिर सो जाते थक-थक-थककर।
काम यही था बक-बक, बक-बक
नौकर से बस झक-झक, झक-झक
क्या यह कविता पारम्परिक ढंग की राजा-रानी पर लिखी कविता है? क्या यहां वही सामंतीय मूल्यों वाला राजा है जिसके सामने जबान खोलना भी अपने को सूली पर चढ़ाने का न्योता देना है?
(क्रमशः)