आज फिर मुकुल को वैसा ही हाथ से लिखा पुर्जा ठाकुरजी के सिंहासन के नीचे रखा मिला। इस पुर्जे पर उसकी विजया दादी ने लिखा था ।
विजया दादी — ठाकुर जी महाराज! बड़ी मुश्किलों मे जिंदगी फंसी है। मुकुल जो कमाता है वह कम पड़ जाता है। कभी—कभी तो बरतन—भांडे बेचकर राशन—पानी लाना पड़ता है। मुकुल को स्कूल में पढ़ रही रश्मि की फीस भी भरनी है। महाराज! बस ऐसी कृपा कर दो कि हमारी सब परेशानियां दूर हो जाएं। कहीं से चार—पांच लाख का बंदोबस्त करा दो। आप बस हमारी तंगी दूर कर दो,भगवान! हम आपकी पूरी उमर पूजा करते रहेंगे।
कहना न होगा कि दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले मुकुल और उसके परिवार की आर्थिक स्थिति पाठक समझ ही गए होंगे। मुकुल एक फैक्ट्री में क्लर्क है। उसके कंधों पर दादी, पत्नी सौम्या और बेटी रश्मि की जिम्मेदारी है। वह हर महीने14—15 हजार रुपये मुश्किल से कमा पाता है। फिर कभी खुद की बीमारी, तो कभी दादी की बीमारी, और कभी रश्मि की स्कूल की फीस भरने के कारण पैसा जमा नहीं हो पाता। कोई भी जलस्रोत कितना भी क्यों न भरा हो, बूंद—बूंद करके खाली हो जाता है अगर उसमें कहीं अन्य जगह से पानी नहीं आ रहा हो।
दादी से मुकुल की यह हालत नहीं देखी जाती। वे खुद को पूजा—पाठ में व्यस्त रखती हैं और समय—समय पर परिवार की माली हालत के बारे में पुर्जे लिख—लिख कर झुग्गी में एक टूटी—फूटी कुर्सी पर रखे ठाकुरजी के सिंहासन के नीचे खिसकाती रहती हैं।
मुकुल रोज काम पर जाने से पहले भगवान को हाथ जरूर जोड़ता है। इसी दौरान उसकी नजर यदा—कदा सिंहासन से नीचे झांकते पुर्जे पर पड़ जाती है। वह पुर्जा पढ़कर समझ जाता है कि आज दादी ने भगवान के दरबार में क्या अर्जी लगाई है। वह ऐसे पुर्जे देखकर कभी झल्ला जाता है तो कभी दादी पर बरस पड़ता है कि वे क्यों घर का रोना भगवान के सामने रोती रहती हैं। ये पुर्जे देखकर उसे कभी—कभी वह वाकया याद आ जाता है जब दादी भयंकर बीमार पड़ी थीं। उनकी खांसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। तब डॉक्टरों ने फीस—जांच आदि के नाम पर उसे निचोड़ दिया था। पूरी जमा—पूंजी साफ हो गई थी वो तो, सौम्या का स्वभाव सचमुच में सौम्य निकला जो उसने अपने चार गहनों के सेट में से एक को बेचकर सास के इलाज के लिए पैसे जुटाने पर हामी भर दी। अन्यथा,ऐसी बहुएं दुर्लभ ही होती हैं जो सास के लिए इतना त्याग कर सकें।
हर दिन की तरह जब मुकुल को सिंहासन के नीचे से झांकता पुर्जा नजर आया तो वह झुंझलाता हुआ दादी के पास पहुंच गया। उन्हें वह पुर्जा दिखाता हुआ बोला — दादी! यह क्या है? अरे आपके इन पुर्जों से ठाकुरजी को पिघलना होता तो वे कब के पिघल गए होते। मुसीबत के समय कोई नहीं सुनता दादीजी! ऐसे पुर्जे लिखने से ही अगर गरीबी दूर होने लगती तो कब की दूर हो जाती और अपने सब दुख दूर हो जाते।
दादी कुछ देर तक चुप रहीं। फिर बोलीं — बेटा! तुम्हारी परेशानियां मुझसे देखी नहीं जातीं। कमाने वाला एक,और साथ में तीन —तीन जिम्मेदारियां तुम्हारे सिर पर हैं। रही पुर्जे लिखने की बात तो मुसीबत के समय अगर हम भगवान को याद नहीं करेंगे तो कौन हमारी नाव पार लगाएगा। अपने भगवान से अपना दुख—दर्द कह तो सकते हैं। ऐसे पुर्जे लिखकर ठाकुरजी के पास रखने से मेरा जी हल्का हो जाता है।
मुकुल — ठीक है, दादी! तुम्हें जो जी में आए करो! जब ठाकुरजी चार—पांच लाख भेज दें मुझे बता देना। मुझे अभी तो फैक्ट्री जाना है। फैक्ट्री में पहुंचकर मुकुल ने आज अपने घर में हुए वाकये की चर्चा जिगरी दोस्त रूपेश भटनागर से कर दी।
क्रमशः (काल्पनिक कथा )