चैप्टर -1
बुंदेलखंड का एक छोटा सा कस्बा बसई! यहीं रहते थे हमारे कहानी के असली हीरो पंडित मातादीन! उन्हें गणेशोत्सव हो जाने के बाद श्राद्धपक्ष का बेताबी से इंतजार रहता था। और यह इंतजार होता भी क्यों नहीं? एक तो श्राद्ध के दिनों में उनकी पूछ—परख बढ़ जाती थी! जमकर खाने—पीने को मिलता था और पंडितजी और पंडिताइन के लिए कपड़ों—लत्तों का इंतजाम भी हो जाता था। इसके अलावा दो—चारसौ की दक्षिणा भी मिल जाती थी, वो अलग!
पंडितजी की काया बहुत दुबली—पतली थी। पर तोंद कुछ ज्यादा ही बड़ी थी। 45 किलो की काया और उनकी तोंद की माया को देखकर अच्छे—अच्छे फन्ने खां भी दांतों तले अंगुली काट लेते थे। हरबार की तरह उस बार भी विरधीचंद ने उन्हें अपने पुरखों का श्राद्धकर्म कराने का न्योता पंडितजी के पास भेजा।
पंडितजी तो मानो इसी के इंतजार में थे। उन्होंने फौरन हां कर दी! विरधीचंद के यहां न्योते का मतलब था पंडितजी के पौ बारह होना! वे जहां भी जाते थे अपने इस प्रिय जजमान के गुण गाते थे। वाह साहब! जजमान हो तो विरधीचंद जैसा! इतना तर माल शुद्ध घी में बना हुआ खिलाते हैं कि सात पुश्तें तर जाएं! दक्षिणा देने में तो उनका जवाब नहीं। दो—चार सौ रुपये देना तो उनके लिए मामूली बात है! पिछली बार के श्राद्ध में तो हमें उन्होंने सिल्क का कुर्ता और धोती दी थी तो पंडिताइन को बढ़िया कोसा सिल्क की साड़ी! भगवान भला करे इस जजमान का! बस, डर यही लगता है कि यह जजमान ब्लड प्रेशर का मरीज है! कहीं जल्दी ही भगवान को प्यारा न हो जाए!
जब पंडितजी को विरधीचंद के यहां से न्योता मिला तो उन्होंने उसी दिन से श्राद्ध वाले दिन तक यानि कुल चार दिन पहले से डाइटिंग शुरू कर दी! बस, सुबह—शाम एक—एक गिलास दूध लेते और दोपहर में स्प्राउट के साथ लस्सी ले लेते! इसी डाइट के दम पर वे पूरे दिनभर रिचार्ज रह लेते। उन्हें आभास हो रहा था कि इस बार विरधीचंद उनकी जमकर खातिरदारी करेंगे इसलिए उन्होंने लगातार चार दिन तक पत्थर हजम चूर्ण भी लिया ताकि भूख और खुलकर लगे।
उधर, विरधीचंद ने भी पूरे जोर—शोर से श्राद्ध की तैयारियां शुरू कर दीं। पंडित मातादीन का पेट फुल करने के अपने पिछले अनुभवों से सबक लेते हुए उन्होंने इस बार डबल खाना बनाने का कहा। उन्होंने फरमान जारी कर दिया — श्राद्ध के दिन हवेली में रहनेवाला कोई भी व्यक्ति चाहे वह बच्चा हो या बूढ़ा, औरत हो या मर्द जब तक पंडितजी पूरी तरह से तृप्त नहीं हो जाएं तब तक बन रहे खाने की खुशबू तक नहीं सूंघेगा! यह खाना हमारी धर्मपत्नी रामकली के करकमलों से पूरे तीन किलो शुद्ध घी से बनेगा। हर चीज पिछले साल से डबल बनेगी। उस दिन रामकली दो तरह की पूड़ियां, तीन तरह की सब्जियां, चार तरह के सलाद—पापड़, दो तरह के रायते, दो तरह के चावल, मूंग की शुद्ध नेपाली हींग से बघारी दाल, बड़े—मंगोड़े और बासमती चावल की खीर बनाएंगी! दो किलो इमरती सेठ धर्मदास के यहां से आ जाएंगी क्योंकि वही अपने कस्बे में शुद्ध घी की इमरती बनाता है।
यह फरमान जारी होने के बाद हवेली में विरधीचंद के दोनों टीनएजर बच्चे— शरीफा और बबीता, रामकली की अंत गांव से अपने हसबैंड गयाप्रसाद के साथ पधारी मुंहबोली बहन अनारकली, अनारकली के दोनों बच्चे— गुलाब और जामुन, घरेलू नौकर गोबर सिंह साफ—सफाई में जुट गए। हवेली के पीछे के कमरे में पिछले साल से बंद पड़ीं विरधीचंद के माता—पिता और दादा—दादी आदि की धूल खा रही तसवीरों को निकालकर जमकर झाड़ा—पोंछा गया।
क्रमशः
(काल्पनिक कहानी )