चैप्टर -2
वह दुकान संभालने के अलावा अपने पापा पर उसकी पढ़ाई का खर्च कम पड़े इस कोशिश में लगा रहता था। कई बार उसने रमाकांत से पुरानी कापियां ली थीं और उनके खाली पन्नों को सिल—सिलाकर अपने लिए नई कापियां बना लेता था । उसके पिता दीवाली का बोनस मिलने पर अपने बेटे के लिए दो पैंट सिलवा देते थे जो कि उसके घुटनों तक लंबे होते थे। जब अगली दीवाली तक संजीव की लंबाई बढ़ने के कारण वे पैंट बिलकुल छोटे पड़ने लगते थे तभी उसके पापा फिर वैसे ही घुटनों तक लंबे पैंट सिलवा देते थे। संजीव की बहनों को रमाकांत के पापा अक्सर कपड़े वार—त्योहार के मौके पर दान करते थे जिन्हें पहनकर वे भी खुश हो लेती थीं।
सोना जितना तपता है उतना ही वह दमकने लगता है। ठीक यही कहावत चरितार्थ हो रही थी संजीव के जीवन पर। लेकिन वक्त की कसौटी पर उसे और इम्तहान देने थे अपने को कुंदन साबित करने के लिए।
यह घटना तब की है जब संजीव दसवीं कक्षा में आ गया था। दिसंबर की कड़कड़ाती सर्दी के दिन थे। भरत श्याम किशोर को प्लांट में छोड़कर विभागीय कैंटीन में चाय पी रहे थे। तभी उनके पास बिमलेश पांडे आया। बिमलेश भी प्लांट में ड्राइवर के रूप में नियुक्त था। वह कई दिनों से भरत के बारे में जानकारियां जुटाने में लगा था।
उसने जान लिया था कि भरत की माली हालत बिलकुल खस्ता है। वह इस मुलाकात से पहले दो—तीन बार भरत से मिलने की कोशिश कर चुका था पर संयोग ऐसे जुड़े कि मुलाकात दुआ—सलाम तक ही सीमित रह गई और ज्यादा कुछ बात नहीं हो पाई। पर इस बार भरत पूरी तरह फुर्सत में दिख रहे थे और बिमलेश ने ठान रखा था कि वह जैसे भी हो उसे अपने एजेंडे से वाकिफ कराके रहेगा।
नमस्कार—चमत्कार के बाद बिमलेश ने भरत से पूछा — का हो? डराइवरी कइसी चल रही है?
भरत ने चाय की चुस्कियां लेते हुए कहा — ठीक है भाई जी! अपना हाल बताइए?
बिमलेश ने कहा — बड़ी मुश्किल से दिन काट रहे हैं। हमने सुना है कि आपका हाल भी एइसने है। अरे! डराइवरे रह के जिंदगी बिता देबो का?
भरत — का करें भइया! कछु समझ नहीं पा रहे है। खरचा के मारे परेशान हैं! चार—चार लइकियन (लड़कियों ) के बोझा सिर पे है! जाने कइसे उनका हाथ पीले कर पाउंगा?
बिमलेश— बस इतना सा बात? हमरे पास एगो स्कीम है! अगर मन हो तो सहजोग दे दीजिएगा! सिकुरिटी गारड से हमारी बात हो गई है! वह दस परसेंट चाहता है।
भरत — कछु बूझे (समझें) नहीं।
बिमलेश — भइया! इ पिलांट तो सूखा सैलरी, एरियर, बोनस के अलावा कछु नहीं दे रहा है। एतना महंगाई है कि गुजारा मुश्किल है! एहिसे हम पिलान बनाए हैं कि चार दिन बाद लंबा हाथ मारब! हमरा के जानकारी मिललवा कि पिलांट के खातिर चालीस लाख के तांबा आइल बा। हम इ तांबा बेच के नोट कमाइब!
भरत ने भांप लिया कि बिमलेश के मन में प्लांट के तांबा की चोरी का खयाली पुलाव पक रहा है। उन्होंने इस काम में हाथ बंटाने से इनकार कर दिया। इसके बाद तो बिमलेश बिलकुल भड़क गया। वह गुस्से में बोला— रउआ (आप ) रहबो तो डराइवर के डराइवर ही! ज्यादा हरिश्चंदर के औलाद मत बनो! अगर इ पिलान रउआ (आप ) के पसंद नइखे आत तो कोनो बात नाहीं! बस केहू से एकरा जिकर न करीं। न तो हम रउआ (आप ) के छह इंची छोटा कर देब! इतना कहकर वह कैंटीन से बाहर निकल गया। उसका रौद्र रूप देखकर भरत कुछ देर के लिए जड़वत (अचंभित) हो गए।
इस घटना के दो दिन बाद जब भरत रोज की तरह शाम को श्याम किशोर को जीप में लेकर क्वार्टर की तरफ लौट रहे थे कि बिमलेश के गुंडों ने उनको चारों ओर से आटो और मोटरसाइकिलों पर सवार होकर घेर लिया। भरत को मजबूरी में जीप रोकनी पड़ी। फिर उन गुंडों ने भरत को जीप से बाहर खींच कर निकाला और उन पर हाकी स्टिक तथा चाकुओं से हमला कर दिया। वे उन्हें हरिश्चंदर की औलाद कहकर तब तक मारते रहे जब तक कि वे बेहोश नहीं हो गए। श्याम किशोर ने बीच बचाव की कोशिश की तो उन्हें भी उन गुंडों ने जमकर पीटा। इस मारपीट का दृश्य आभा ने स्कूल से लौटते समय देखा था। वह हिंसा का यह तांडव देखकर सहम गई थी।
क्रमशः (काल्पनिक कहानी )