आखिरी चैप्टर
इससे भी बड़ी बात यह है कि अब टीवी चलाने के लिए एंटीना लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। नहीं तो पहले के जमाने में वीक सिग्नल होने के कारण दो—दो पहलवानों को एंटीना घुमाने में लगना होता था और दस मिनट का मैच देखने के लिए कोई आधा घंटा पसीना बहाना होता था!
अब तो बस, डी टू एच से सब सैट है जिसके पास भी यह है वह अपने को किसी सेठ से कम नहीं समझता। आम आदमी तो केबल वालों से ही मोल—भाव करके 100—150 चैनल कैसे देखे जाएं, इसकी जुगाड़ में लगा रहता है।
फिर पहले टीवी होना ही बड़ी बात थी! आजकल टीवी बड़े हो गए हैं लेकिन इंसानों के दिल छोटे—छोटे! तभी तो अपनी—अपनी पसंद का चैनल देखने के चक्कर में घर—घर में सचमुच का महाभारत हो जाता है। यानी फुल इंटरटेनमेंट! अपना भी और पड़ोसियों का भी!
घर वाले आपस में लड़ें तो पास—पड़ोस में इसकी खबर वायरल होते देर नहीं लगती! फिर कब कौन इसका लाइव टेलीकास्ट कर दे क्या मालूम! लोगों ने जरा से मोबाइल फोन से ही पूरी दुनिया अपनी मुट्ठी में कर रखी है और मोबाइल फोन कंपनी वालों ने आम आदमी की गर्दन!
लोगों को अब घर में आटा खत्म होने की चिंता उतनी नहीं सताती जितनी कि नेट का डाटा खत्म होने की। ये स्कीम, वो स्कीम कौन कंपनी कितने कम पैसे में कितना डाटा दे रही है यही लोग हिसाब—किताब करते रहते हैं। ढिंचक पूजा इसी मुद्दे पर गाना बनाकर पॉपुलर हो जाती है—
घरवालों ने मारा चांटा, खतम हो गया आटा!
जेब में नहीं है कौड़ी, खतम हो गया डाटा!
वाह साब क्या तुकबंदी है। या शॉर्ट में कह लें कि क्या बंदी है जिसकी यह तुक है। आम आदमी की जिंदगी को नपे—तुले शब्दों में कहने का मनोरंजक अंदाज! पूजा तुम्हें सलाम!
पहले कश्मीर से कन्याकुमारी जाने में छह महीने से अधिक समय बर्बाद होता था। किसी आलसी टाइप के सज्जन को लगा कि यह तो समय की बेहद बर्बादी है। अत: पहले इस रूट पर ट्रेनें चलाई गईं और अब प्लेन से भी यह सफर कम से कम समय में तय किया जा सकता है। ट्रेन में चार दिन लगाने का समय यदि आपके पास नहीं है तो आप प्लेन का इस्तेमाल कर लें। महज कुछ ही घंटों में यह सफर पूरा हो जाएगा। बस, जेब जरूर ढीली हो जाती है। या तो आप समय बचा लें या पैसा! दोनों चीजें एक साथ नहीं बचा सकते।
पैसा भी किसी आलसी का अच्छा आविष्कार है। हालांकि यह बात अलग है कि मेहनतकश लोग अपना खून—पसीना बहाकर इसे कमा पाते हैं जबकि धनी लोग एक से अधिक स्रोतों या सोतों से अपनी प्यास बुझाते रहते हैं। पहले पैसे नहीं चलते थे। पत्थर की बड़ी—बड़ी सिल्लियां और मेटल के टुकड़े या गाय—भैंस आदि को लोग एक्सचेंज के लिए इस्तेमाल कर लेते थे। इस काम में मुश्किलें बहुत थीं। एक तो सिल्लियां उठाने में बहुत मेहनत पड़ती थी या मेटल के कॉइन रखने से जेबें फटने का डर रहता था। अगर हाथ में आई लक्ष्मी जेब से फटकर गिर जाए तो लोगों को बेहद दुख होता था। इस दुख से बचने के लिए आलसी टाइप के लोगों ने क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड का आविष्कार कर दिया। बस जरा सा स्वाइप किया लाख—दस लाख रुपये इधर से उधर! बड़ी—बड़ी रकमें इधर से उधर हो जाती हैं और भाई लोगों को आभास भी नहीं होता। न गिनने का झमेला, न करेंसी नोट संभालने का टंटा!
जिन सज्जनों की मैथ्स कमजोर थी और काउंटिंग वगैरह करने में आफत लगती थी उन्होंने कैल्कुलेटर और कंप्यूटर जैसी चीजों का आविष्कार कर दिया। ताकि उनकी जिंदगी भी आराम से कटे और पब्लिक की भी। तभी तो कोई—कोई दुकानदार कैल्कुलेटर पर इतना निर्भर दिखता है कि वह 1 किलो आटा और 100 ग्राम नमक का भाव जोड़ने के लिए कैल्कुलेटर का इस्तेमाल करता दिखता है। छोटे—छोटे बच्चे 1 से 20 के टेबल्स मुंह जबानी याद नहीं करके कैल्कुलेटर का इस्तेमाल करके फौरन बता देते हैं कि 119 को 176 से मल्टीप्लाई करेंगे तो क्या आंसर आएगा!
सच में आलसियों ने एक बार ही अपना आराम खोकर हमारी जिंदगी आसान कर दी है। अब सब कुछ अंगुलियों के इशारे पर होता है। इनके बारे में जितना भी लिखा जाए कम है। इन्हीं आविष्कारों के बदौलत दुनिया नई रफ्तार से चलती दिख रही है। दुनिया के तमाम आलसियों को मेरा सादर नमन! अब यह व्यंग्य पूरा करने में भी मुझे बेहद आलस आ रहा है। अब मैं अपने सोने की व्यवस्था करती हूं और आप यह चिंतन करते रहिए कि आलस्य और आलसी व्यक्ति जिंदगी में कितने जरूरी हैं।
(काल्पनिक रचना)