आखिरी चैप्टर
खाना मिलते ही वे दोनों खाने पर ऐसी टूट पड़ीं जैसे कई सप्ताह से भूखी हों। आखिर में सूजी का गरमा—गरम हलवा भी दोनों ने दो—दो बार लिया।
जब भंडारा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा तो मंदिर के मुख्य पुजारी ने माइक हाथ में थामा और उस पर कहने लगे — ‘देवियों और सज्जनों! इंश्वर की कृपा से और आप सबों के सहयोग से आज का आयोजन हो रहा है। भंडारे का हमारा उद्देश्य यह है कि कोई भी गरीब भक्त भगवान के घर से भूखा नहीं जाए। इस पुण्य कार्य के लिए भक्तजनों ने जमकर दान किया है। इससे हमारे पास इतनी राशि एकत्रित हो गई है कि हम भंडारे को सप्ताह भर चला सकते हैं। आपको जानकर प्रसन्नता होगी कि आज से लगातार एक हफ्ते तक इस मंदिर के प्रांगण में रोज दोपहर दो बजे से भंडारा होगा। आप लोग सादर आम़ंत्रित हैं। कृपया करके पूर्ववत सहयोग देते रहें। जय दुर्गा!’
यह ऐलान सुनकर मानो नीलिमा और शीला की बांछें खिल गई। वे मन ही मन सोचने लगीं कि वाह! अब तो एक हफ्ते तक मुफ्त दावत मिलेगी! न खाना पकाने का झमेला और न राशन लाने का! बढ़िया स्वादिष्ट गरमा—गरम खाना सात दिनों तक हर रोज मिलेगा। इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता।
खैर। भंडारा छह दिन और चला। नीलिमा और शीला दोनों ही रोज सही समय पर पहुंच जातीं, वहां जमकर खाना खातीं और प्रसन्नतापूर्वक ‘जय दुर्गा’ के नारे लगाते हुए घर वापस आ जातीं। उन्हें पता नहीं था कि मुख्य पुजारी जी उनकी हरकतों पर हर रोज नजर रख रहे हैं।
सातवें दिन नीलिमा और शीला पहले की ही तरह तैयार हो कर भंडारे में पहुंच गईं। ठाठ से एक जगह जमकर बैठ गईं। न खाना परसाई में हिस्सा लिया और न ही मंदिर में कोई दान—पुण्य किया। बस, जमकर खाना खाया और पानी की टंकी के पास हाथ धोने पहुंच गईं।
तभी नीलिमा और शीला ने कनखियों के देखा कि मंदिर के मुख्य पुजारी जी ने माइक हाथ में थाम लिया है और वे कुछ कहने जा रहे हैं। दोनों का ध्यान उस तरफ चला गया। मुख्य पुजारी ने अपना स्वर थोड़ा कड़ा किया और कहने लगे — ‘प्रिय भक्तजनों! यह मंदिर और भंडारा आप सभी के सहयोग से एक हफ्ते से चल रहा है। इसका कुछ लोग नाजायज फायदा उठा रहे हैं। मुफ्तखोरी कर रहे हैं। आते हैं, खाते हैं और चले जाते हैं। न कोई दान न कोई सहयोग! ऐसे लोग भंडारे के पीछे निहित इस भावना का निरादर कर रहे हैं कि भगवान के दर से कोई गरीब या वंचित भूखा नहीं जाए। लेकिन ओछी मानसिकता वाले बेहद सामर्थ्यवान लोग भी भंडारे की प्रसादी का मुफ्त का माल समझकर हर रोज जीमने चले आते हैं! धिक्कार है ऐसे लोगों पर जो एक सामाजिक पुण्य कार्य का गलत लाभ उठा रहे हैं! जय दुर्गा!’
पुजारी जी बातें सुनकर नीलिमा और शीला को बेहद ग्लानि होने लगी। उनका एक—एक शब्द दोनों के सीने में तीर की तरह चुभ रहा था। उन्हें लगा कि काश! धरती इसी समय फट जाए और वे उसमें समा जाएं। वे भले ही कैसी भी हों पर मुफ्तखोर नहीं कहलाना चाहती थीं।
फिर दोनों ने अपना साड़ी के पल्लू को चेहरे पर गिरा लिया और अपने-अपने पर्स टटोले, उनमें सौ-दो सौ रुपये पड़े थे। उन्हें वे मंदिर की दानपेटी में डालकर अपने घरों की तरफ निकल पड़ीं।
(काल्पनिक कहानी )