चैप्टर—2
सबको हमारी युक्ति पसंद आई।
तो पहले जनाब अशोक चक्रधर साहब प्रकट हुए। बोले — बंधुगण, आजकल हर जगह राजनीति है। इस सर्वव्यापी राजनीति की घुसपैठ झोपड़ियों में भी हो गई है। इसी पर मैंने यह कविता बनाई है —
हां, झोपड़ी मेरे सामने खड़ी थी,
हवा, तूफान, ताप के खिलाफ—
न जाने कब से खड़ी थी।
ये राम की झोपड़ी है
ये रहीम की झोपड़ी है
ये पॉल की झोपड़ी है
ये पीटर की झोपड़ी है।
तब झोपड़ी से झोपड़ी सटकर खड़ी थी,
पर नेताओं को इससे क्या
उन्हें तो वोटों की पड़ी थी!
इसलिए अब
एक के सामने दूजी दीवार खड़ी है
तो भाइयों यह राजनीति का ही प्रताप है
एक झोपड़ी दूसरी के खिलाफ है!
दीवारें जुदा—जुदा बनती जा रही हैं
झोपड़ियां खुद में ही सिमटती जा रही हैं!
अरे! हरेक झोपड़ी ईंट, गारे, फूस व छप्पर से बनी है
इसी में तो आधे से अधिक जनता सदा से रही है।
सच भाइयों झोपड़ी की राजनीति और
इसका अहम बड़ा धोखा है!
अरे! ईंट से ईंट मिलकर बनी दीवार ने ही तो
छत को गिरने से रोका हैं!
छत को गिरने से…..
वाह! वाह!! क्या बात है!!! आदि जैसे आश्चर्य मिश्रित वाक्यों से वातावरण गूंज उठा। हमने कहा— अरे भाइयो! इतनी प्रशंसा मत कीजिए कि मेरी झोपड़ी के बांस ही हिलने लग जाएं। नहीं तो सब इसके नीचे दब जाएंगे! अभी हम यह समझाइश देने में लगे ही थे कि काका हाथरसी अपनी लंबी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए प्रकट हो गए। सबने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया और तब काका ने चेहरे पर गंभीरता लाते हुए अपना यह छक्का छोड़ा —
बरस रहा था बाहर मेह और था घुप्प अंधेरा
ऐसे में एक खाली सी झोपड़ी में हमने डाला डेरा!
कह काका कविराय हमने डाला डेरा
तभी सामने बंधी भैंस ने अपनी पूंछ को फेरा!
उसने जब पूंछ को फेरा तो हमने छोड़ी फुलझड़ी
मानो या न मानो भैंस से है अक्ल बड़ी!
यह सुनकर भैंंस का मालिक दौड़ा आया,
उसने हमें तत्काल झोपड़ी से बाहर निकलने का फरमान सुनाया!
सुना दिया फरमान तो हमने सोचा
इन दोनों के सामने हमने क्यों न अकल को कोसा?
अरे! क्यों न अकल को कोसा, जो ऐसा कर जाते
कट जाती वह मनहूस रात और भीगने तो नहीं पाते!
खूब तालियां पिटीं। झोपड़ी में मच्छर भी ढेर सारे थे उनमें से कई इन तालियों के बीच फंसकर शहीद हो गए।
क्रमश:
(काल्पनिक रचना )