चैप्टर-3
इसके बाद पिताजी काफी दिनों तक खोये-खोये से रहे। अस्पताल के खर्च ने उन्हें परेशान कर दिया था। सैलरी के बाहर पैर पसारने के जरूरत पड़ गई और उन्हें दिवाकर से करीब एक हजार रुपये उधार लेने पड़ गए।
दिवाकर दरियादिल थे। उन्होंने पिताजी की हालत को समझते हुए उधार दे दिया था और वो भी ब्याज रहित! पिताजी काफी समय तक अनमने से रहे। पर धीरे-धीरे वे परिस्थिति के अनुरूप ढलते गए और मुझे संभालने लगे। फिर समय बीतने लगा।
बस वाले हादसे के एक साल बाद मुझे लगा कि पिताजी की माली हालत दुरुस्त करना जरूरी है। इसलिए मैं भी अपना योगदान करने की सोचने लगा। पर उस समय मुझमें ज्यादा अक्ल नहीं थी। मेरी दादी शैलजा अक्सर मुझे कल्पवृक्ष के किस्से सुनाया करती थीं। इससे मेरे मन में यह धारणा बैठती जा रही थी कि पैसे पेड़ पर उगते हैं। अतः मैंने अपने दोस्त दयाशंकर के साथ मिलकर पैसों का पेड़ लगाने की सोची।
हमने इस पेड़ को लगाने के लिए जगह भी तय कर ली। यह जगह थी घर के पिछवाड़े लगे नींबू के पेड़ के पास। हमने सोचा कि हम इसी पेड़ के आसपास पैसों की खेती करेंगे। पैसों का पेड़ लगाएंगे और उसे सींच-सींचकर खाद आदि देकर तगड़ा कर देंगे। फिर समय बीतने के साथ उसमें पत्तों की जगह नोट उगने लगेंगे। यह पेड़ हमारी साझा संपत्ति होगा। हम जब भी उसमें नोट उगेंगे बांटकर आधा-आधा कर लिया करेंगे।
दयाशंकर भी मेरी तरह भोला-भाला था। उसने प्लान पर रजामंदी दे दी। मई 1971 में हमने पैसों के पेड़ का बीजा रोपण कर दिया। हुआ यों कि पिताजी से मैंने मलाई बरफ खाने के लिए चवन्नी यानी 25 पैसे का सिक्का मांगा था। तब जमाना सस्ता था। आजकल जो आइसक्रीम 5 से 10 रुपये की आती है वो तब 25 से 50 पैसे में ही आ जाती थी। पिताजी ने ज्यादा कुछ पूछताछ किए बगैर मेरे हाथ में चवन्नी देते हुए कहा – बेटा! तंगी के दिन हैं। पैसा संभाल कर खर्च करना।
मैंने अपना मंतव्य पूरा होता देखकर हां-हूं कर दी। इसके बाद जैसे ही चवन्नी हाथ में आई मैं ऐसे बाहर की तरफ भागा जैसे कि धनुष से कोई तीर छूटा हो। पिताजी मुझे हैरानी से देखते हुए आवाज ही लगाते रह गए – रघु! रघु!! पर मुझे कहां वह सब सुनने की फुर्सत थी।
मैं तो फटाक से दरवाजे के बाहर खड़े दयाशंकर के पास पहुंचा। वह भी चवन्नी लेकर आया था। फिर हम एक मग्गा लेकर चल पड़े पैसों का प्लांट लगाने। हमने तमाम सावधानी बोते हुए खुरपी से अच्छी तरह से छीलछालकर अपनी-अपनी चवन्नियों को जमीन में दफन कर दिया। फिर उनके उपर मिट्टी और खाद की परत चढ़ा दी। यही नहीं इस ढेर पर मग्गे से जल का सिंचन भी कर दिया।
स्कूल में गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं। हम रोज पिताजी के दफ्तर जाने के बाद अपने मनीप्लांट की ग्रोथ देखने और उन्हें खाद-पानी देने पहुंच जाते। यह सिलसिला कोई दस दिनों तक लगातार चलता रहा।
ग्यारहवें दिन वो हुआ जो हमने सोचा नहीं था। हम रोज की तरह अपने मनी प्लांट्स की सिंचाई करने और उन्हें खाद देने के लिए पहुंचे। इधर, पिताजी अपना पैसों वाला बटुआ घर पर भूलकर ड्यूटी के बजाने के लिए अपने दफ्तर के आधे रास्ते में ही थे कि उन्हें बटुए की याद आ गई। वे उस बटुए को लेने के लिए आधे रास्ते से ही लौटकर घर आ गए। घर पर जब मैं नहीं मिला तो वे मुझे ढूंढ़ते हुए घर के पीछे पहुंच गए।
क्रमशः
(काल्पनिक कहानी)