(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च पर विशेष प्रस्तुति)
रचनाकार : उत्तम कुमार तिवारी “उत्तम”, लखनऊ
चैप्टर-2
पुत्रवधू के प्रथम दर्शन यानी ईश्वर से साक्षात्कार ही है क्योंकि माता को जब संतान प्राप्ति होती है उस समय भले ही सभी उत्सव मनाते हैं लेकिन माता प्रसव पीड़ा में ही रहती है। वे भले ही उपर से हँस लें लेकिन बहुत कष्ट रहता है। वे पुत्र जन्म पर आरती, आदि नहीं कर सकती हैं लेकिन विवाह होकर ज्यों ही पुत्र पुत्रवधू संग आया कि माता के परम आनंद देखते बनता है। वे कभी इधर भाग दौड़ करती हैं तो कभी उधर!!!
जैसे पुत्र जन्म पर पिता को परम आनंद होता है…
दशरथ पुत्र जन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानंद समाना।
….परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा।।
पुत्रवधू के प्रथम दर्शन से स्त्री का जन्म सफल हो जाता है।
पुनि पुनि सिय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी।।
वंश वृद्धि का अति महत्वपूर्ण दायित्व सफल हो जाता है।
पति कुल ने जो दायित्व दिया आज.पूर्ण कर दिया। अतः पति परायण स्त्री के लिए इससे बड़ा उत्सव क्या होगा??
हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के।
इस वंश को रखना पुत्रवधू संभाल के।।
पुत्रवधू आपके दायित्व को ग्रहण करने आई है न कि वह प्रतिद्वंद्वी है!!!
सास बहू के संबंध का भविष्य क्या होगा वह वधू प्रवेश समय ही कुछ कुछ दिखाई देने लगता है।
यदि सासू जी के हृदय में छोटा सा भी संदेह का बीज हो तो आगे चलकर बड़े वृक्ष का रूप ले लेगा और यदि ष्परमानंदष् हो तो फिर क्या कहना!!!
अतः संदेह बीज नहीं बल्कि प्रेम बीज का रोपण , वंश के भविष्य का सहर्ष , परम आनंद के साथ स्वागत आवश्यक है।
निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँपड़े देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत।।
दुल्हन! धीरे धीरे चलियो
ससुराल गलिया !!!!
दुल्हन! धीरे धीरे चलियो….वही कन्या जब अपने ससुराल आ जाती हैं एक नारी के रूप में तो उससे जाये ( जन्मे ) संतान से उसके पति का कुल चलता हैं न कि उसके पिता का। कितना त्याग करती हैं एक नारी!
एक कहानी मुझे याद आ गई कि एक बार एक भाई ने अपनी बहन से कह दिया की आप मुझे प्यार करती हैं या जीजा जी को। उसकी बहन ने उससे कहा कि इसका उत्तर समय आने पर दे दूँगी। कुछ समय बीतने के बाद उसने अपने भाई से कहा कि तुम पूर्व दिशा मे नंगे बदन बिना जूते के ज़ाओ दोपहर मे गर्मी दे दिनो में और अपने पति से कहा कि आप पश्चिम दिशा को ज़ाओ। दोनों ने वही किया उसके बाद दोनों वापस आ कर पूछते हैं कि इसका अभिप्राय क्या था, तो उसने कहा कि मेरे भाई ने मुझे एक प्रश्न किया था ज़िसका उत्तर हमने आज दे दिया। फिर दोनो समझ गये। ये त्याग हैं एक नारी का नारी के रूप में!
अब उसका तीसरा रुप होता हैं माँ का।
अब नारी का महत्व –
अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं- अपाला, घोषा. सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या],सावित्री,अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि।
वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय। वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख-समृद्धि लाने वाली] विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती,इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं।
पुराणों में नारी को धर्म] अर्थ, काम और मोक्ष की सहायिका माना गया है ।
भारतीय संस्कृति में उसे देवी का स्थान प्राप्त था। मानव सभ्यता के तीन आधार स्तंभ बुद्धि,शक्ति और धन तीनों की अधिष्ठात्री देवियाँ हैं । यह गौर करने योग्य विषय है कि
बुद्धि की देवी सरस्वती
धन की देवी लक्ष्मी
शक्ति की देवी दुर्गा,काली समेत नौ रूप
वेदों की देवी गायित्री
धरती के रूप में संपूर्ण विश्व का पालन करने वाली धरती भी माँ स्वरूपा हैं।
जल के रूप में प्राणीमात्र का तर्पण करने वाली गंगा, जमुना, सरस्वती तीनों माँ स्वरूप हैं।
और सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इन सभी रूपों को पुरुषों द्वारा पूजा जाता है।
(क्रमशः )