चैप्टर-3
बारिश के दिन थे। जैसे ही मेरे मुंह से निकला- शीतल! अब मैं चाहता हूं कि अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद जब अपना करियर शुरू करें तो बाकी की जिंदगी भी साथ-साथ बिताएं! यह सुनकर पहले तो शीतल अवाक रह गई और अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हो गई। तभी जोरदार बिजली की गड़गड़ाहट हुई और रेस्तरां में अंधेरा छा गया।
मैंने अपने होस्टल के कमरे की चाबी वाली की-रिंग जेब से निकाली। उसमें एक छोटी टाॅर्च भी लगी हुई थी। मैंने उसे जलाकर रोशनी का जैसे-तैसे इंतजाम किया। मैं उस नन्हीं सी टाॅर्च की रोशनी में शीतल के चेहरे पर बन गईं बड़ी-बड़ी रेखाओं को पढ़ सकता था। मैं उसकी हालत देखकर बैचेन हो गया।
शीतल बिजली की भयानक आवाज से कांप उठी और अपने आप में सिमट गई। मैंने उसे ढांढस देने के लिए फौरन अपनी चेयर छोड़कर सीने से लगा लिया। मुझे तब उसकी बढ़ी हुई दिल की धड़कनों का एहसास हुआ। उसकी सांसें मेरी सांसों से मिलीं पर डर, चिंता और बिगड़ते मौसम ने हमारे बढ़ते कदमों को रोक दिया।
खराब मौसम के बीच रेस्तरां की कुछ काॅटेज की छत टपकने से लोगों ने हो-हल्ला शुरू कर दिया। लोगों की चीख-चिल्लाहट ने हमें जैसे तंद्रा से जगा दिया और हम दोनों अलग-अलग होकर अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ गए। तब से हमें यह आशंका लगने लगी थी कि हम भले ही जो भी प्लानिंग करें पर शायद नियति हमें मिलना देने नहीं चाहती।
इस घटना के बाद हमारे बीच थोडा फासला बढा। हमने इस नई परिस्थिति में अपने आप को असहज पाया। मुझे बुरे-बुरे सपने आने लगे। उधर शीतल का भी वही हाल हो गया। उसके चेहरे पर सदा खिली रहने वाली मुस्कान धीरे-धीरे सिकुड़ने लगी और भले ही हम काॅलेज साथ-साथ जाते थे पर मन में दूरी बढती जा रही थी। यह सब हुआ बीटेक के आखिरी वर्ष में। फिर जब बी टेक का रिजल्ट आया तो इस रिजल्ट ने हमारी जुदाई पर मानो मुहर लगा दी। क्योंकि तभी मुझे अपने माता-पिता के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण रतलाम छोड़ना पड़ा और शीतल को भी अपनी मां की तबियत बिगड़ने के कारण घर वापसी जैसा सख्त कदम उठाना पड़ा।
मैं इन दुर्घटनाओं और बिछोहों के कारण टूट सा गया था। ऐसा लगता था मानो जिंदगी के सारे सुख सूख गए हों। अब मुझे वसंत की बहारें चिढ़ाती हुई सी लगतीं जबकि पतझड़ मुझे अपना सा लगने लगा था। बारिश हमारे मन में भय पैदा करती थी। बिजली की कड़क किसी अनहोनी की आशंका से डरा देती थी।
उधर, शीतल मुझे और अपनी मां को याद करके अक्सर सोने के वक्त अपने आंसुओं से तकिए को गीला करती रहती थी। उसके जीवन में एक शून्य सा पैदा हो गया था। उसका मधुर स्वभाव तीखा हो चला था। वह बात-बात में लड़ने लगती। जरा सी आवाज सुनकर दहल जाती। गहरे डिप्रेशन के कारण उसे बार-बार डाॅक्टरों के चक्कर काटने पड़ते अपनी मानसिक स्थिति को ठीक करने के लिए।
यह सब कोई एक-डेढ़ साल चला। हमने पंडित की शरण ली, कई टोटके आजमाए पर उनसे कोई लाभ नहीं हुआ। अंत में हमारे कुछ रिश्तेदारों ने सलाह दी कि तुम लोग जाॅब पर जाना शुरू करो। इससे ध्यान भी बंटेगा, इनकम बढ़ेगी और काम सीखने को भी मिलेगा।
क्रमशः
(काल्पनिक कहानी)