रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
चैप्टर-3
इतिहास और साहित्य के विद्यार्थियों के लिए तुलनात्मक शोध के लिए भी ऐसी यात्रा प्रेरक हो सकती है।
यहाँ यह जरूर जोड़ना चाहूँगा कि सुनाने-सुनने की परम्परा में उपलब्ध आज के बालक और नयी पीढ़ी के लिए कितना प्रासंगिक है, यह विचारणीय है। शोधार्थी, इतिहासकार या प्रबुद्ध जन के लिए भले ही वह अपने मूल रूप में ग्राह्य हो सकता है, लेकिन अन्यों के लिए उसे परोसते समय आज के संदर्भों, जरूरतों और वैज्ञानिक दृष्टि का ध्यान रखना होगा। उनका पुनः सृजन भी करना होगा। अंधविश्वासों, सामंतीय सोच, बेपर की बातें आदि से उन्हें मुक्त रखना होगा।
यूँ हमारे यहाँ लोक की बोध कथाओं के रूप में ऐसी कहानियाँ भी उपलब्ध हैं जिनमें विज्ञान का पुट मिलता है। एक लोक विज्ञान कथा इस प्रकार है – एक यजमान अपने पुरोहित से बंजी (व्यापार-प्रवास) पर जाने के लिए उचित समय पूछने गया। पुरोहित वैद्य भी था। किसी बात को लेकर यजमान से गुस्सा था। उसे सबक सिखाना चाहता था। उसने यजमान को समय बताया, लेकिन साथ ही यह कहा, ‘पड़ाव बबूल की छाया में डालते हुए चले जाना।‘
अपने लक्षित स्थल तक पहुँचते-पहुँचते यजमान का स्वास्थ्य बिगड़ गया। वहाँ जाकर उसने वहाँ के वैद्य से इलाज के लिए भेंट की। वैद्य ने यजमान का सारा किस्सा सुन लिया और यह भी जान लिया कि बबूल के नीचे ठहरने की सलाह ही बीमारी की जड़ थी। ठीक होने पर यजमान ने घर वापसी करनी चाही। वैद्य से समय पूछा। वैद्य ने सलाह दी, ‘नीम की छाया में ठहरते हुए जाना।‘ यजमान ने वैसा ही किया। वह घर स्वस्थ ही पहुँचा।
उसके गुस्साधारी पुरोहित ने जब उसे स्वस्थ देखा तो समझ गया कि शेर को सवा शेर मिल गया है।
मुझे फिर कभी-कभी भूतों की कहानी सुनाने वाले दादाजी की याद हो आई है। चमत्कारों और कह सकता हूँ कि अविश्वसनीय और डरावने कारनामों से भरी पूरी कहानी सुनाने बाद वे कहा करते थे कि भूत भ (भय) का होता है।
सूझ-बूझ को सामने लाती एक और छोटी लेकिन मजेदार सुनी हुई लोक कहानी याद आ गई है। एक पथिक किसी दूर के दूसरे गाँव शाम ढलने से पहले पहुँचना चाहता था। वह चला जा रहा था। रास्ते में अपने खेत में काम करते हुए एक किसान को देखा। सोचा इससे ही पूछ लूँ कि लक्षित गाँव तक पहुँचने में कितना समय लगेगा। सो उसने पगडण्डी पर खड़े-खड़े ही किसान को आवाज देकर पूछा -‘ ताऊ मुझे फलाने गाँव ( गाँव का नाम) जाना है। कितनी देर में पहुँच जाऊँगा?’
किसान ने अपने काम में जुटे-जुटे ही कहा –‘चल चल।‘ पथिक सुनकर दु:खी हुआ। सोचा, जाने किसान क्यों अपमान जनक रूप में बोल रहा है। शायद काम ज्यादा होने की वजह से। साहस करके उसने फिर पूछा, ‘ताऊ, बहुत जरूरी काम से मुझे उस गाँव पाहुँचना है। बता दो न कि कितनी देर में पहुँच जाऊँगा?’
किसान ने फिर रूखी जबान में ही कहा –‘चल चल।‘पथिक ने सोचा कि बहुत ही रूखा और बदतमीज आदमी है यह किसान। सो वह चल पड़ा,यह सोचकर कि आगे किसी भले आदमी से पूछ लेगा।
अभी वह थोड़ी दूर ही तक ही चला था कि पीछे से किसान ने आवाज लगाई-‘ ओ भाई राहगीर, तू शाम तक उस गाँव पहुँच जाएगा।‘ सुनकर पथिक को बहुत आश्चर्य हुआ। आखिर अब किसान को सद्बुद्धि कहाँ से आ गई। उसने बहुत ही विनम्रता लेकिन थोड़ी नाराजगी से पूछा, ‘ताऊ यह बात तो पहले भी बता सकते थे। पहले तो दुत्कारते रहे। कहते रहे, चल चल।‘
ताऊ ने अपने अंदाज में कहा, ‘भाई, मैं ज्योतिषि तो हूँ नहीं कि हिसाब लगा कर समय बता देता। तेरी चाल देखकर ही तो बता सकता था। तू चला तो अंदाजा लगा लिया कि इस चाल से कितनी देर में पहुँच जाएगा। तभी तो कह रहा था- चल चल।”
पथिक ताऊ किसान की सूझबूझ पर गदगद हो गया।
(क्रमशः )