रचनाकार : समीर गांगुली, मुंबई
दूसरी पुस्तक ‘‘ भले भूतों की कहानियां’’ में मैंने बाल साहित्य की एक अत्यंत लोकप्रिय विधा पर कुछ अलग तरीके से कहानियां कहने की कोशिश की है. जिसके बारे में बाल साहित्य के प्रख्यात आलोचक श्री सुरेन्द्र विक्रम ने विस्तार से लिखा है. पेश है उस समीक्षा का एक अंश.
‘‘ धन्य हैं लेखक समीर गांगुली और धन्य हैं उनकी भले भूतों की कहानियाँ। इसमें चार चाँद एक भूत की चिट्ठी लगाती है जो बड़े प्रेम से बातचीत की शैली में लिखी गई है। पहले आप भी उस चिट्ठी का आनंद लीजिए :—-
“मुझे यह जानकर ‘थोड़ी खुली थोड़ा गम’ हुआ है कि हमारे बारे में बच्चों के लिए कहानी की एक किताब लिखी जा रही है। उम्मीद है ये कहानियाँ झूठ-मूठ में बच्चों को डराने के लिए नहीं होंगी। बल्कि इंसानों के साथ हमारा एक दोस्ताना रिश्ता बनाएँगी।हम बेवजह किसी से उलझते नहीं हैं। अरे! भाई हमें भी तुम्हारी तरह कई चीजों से डर लगता है। कुछ चीजें अच्छी भी लगती हैं……….वैसे इन कहानियों को पढ़कर मुझे बहुत मज़ा आया। मैने अपने कुछ साथियों को भी सुनाई, मगर कुछ भूत बड़े गुस्सा हो गए, और मुझसे लेखक का पता माँगने लगे। मगर मैंने नहीं दिया क्योंकि मुझे भूतों की सुरक्षा का डर था और लेखकों की ताकत को कभी कम नहीं समझना चाहिए। वे कुछ भी कर सकते हैं –अपनी कहानियों में।”
भूत की इस बात को सही कर दिखाया है लेखक समीर गांगुली ने कि लेखक तो अपनी कहानियों के माध्यम से कुछ भी करने में सक्षम है। छोटी -बड़ी दस कहानियाँ और बन गई पूरी किताब —भले भूतों की कहानियाँ। अब यह लेखक की कल्पना और कलम का कमाल है कि उसे बहुत सारे भूतों में भी कुछ भूत भले लगते हैं। संडे की पहली कहानी भूतो और भूत का ऐसा ताना-बाना बुना गया है कि पढ़ते-पढ़ते कहीं हँसी आती है तो कहीं आश्चर्य से मुँह खुला रह जाता है। साधारण ढंग से उठाई गई भूतो की कथा जब आई.ए.एस. बने भूतो पर समाप्त होती है तो इस बदलाव में भूतों की ही भूमिका का उल्लेख होना सही अर्थों में मन और दृढ़ इच्छाशक्ति का बदलाव है। और यही भले भूत का संकल्प कथा को इतना बाँधकर रखता है कि आई.ए.एस. भूतो आधी रात को भी उस भूत कै ढूँढ़ता है जिसने उसकी ज़िन्दगी ही बदल दी है।
अगली कथा छोटा डॉक्टर, बड़ा डॉक्टर भी भूतराजा का इलाज होम्योपैथिक दवाओं से करता है और वह पूरी तरह ठीक हो जाता है। हालांकि यह कथा सपने में बुनी गई है लेकिन इसके साथ जो उद्देश्य है वह हमें परोपकार की भावना पर बल देता है। भूतराजा के महल में कैद डॉक्टरों को मुक्त कराने के साथ मनु के नानाजी का अस्पताल से सकुशल लौटना और उनके इलाज में एक भी पैसे का नहीं लगना पुस्तक का शीर्षक इस बात की पुष्टि करता है कि भूत भले ही हो सकते हैं। कहानी संकलन का शीर्षक पढ़कर मन में जो तरह-तरह के संशय जन्म ले रहे थे कि भूतों के बारे में तो सुना गया था लेकिन भूत भले भी होते हैं, धीरे-धीरे यह मानने के लिए तैयार हो रहा है। वो नहीं था वो! में रहस्य और साथ -साथ रोमांच चलते हैं। हो सकता है कि शरीर बदलने की कथा पर एक बार अविश्वास के दायरे में आ सकती है मगर टेलीपैथी पर तो विश्वास किया जा सकता है। अब जब कथा भूतों की है तो कुछ ऐसा एडवेंचर तो होगा कि दिमाग को कसरत करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
भूतभुलैया में तेनाली और वीर दो पात्रों का चयन भी कथाकार की उस सूझबूझ का हिस्सा है जो मशहूर दोनों किस्सागो की सहज ही याद दिला देते हैं। वीर का तेनाली से होमवर्क कराना रोबोट की याद दिला देता है। अंतर इतना है कि रोबोट सारा काम खुद ही करते हैं, लेकिन तेनाली वीर का हाथ पकड़कर सारा होमवर्क कराता है। अंत में तेनाली का यह पत्र लिखकर चले जाना कि—-मालिक मैं नौकरी छोड़कर जा रहा हूँ –मालिक और नौकर के रिश्तों की बुनियाद का वह हिस्सा है जिसकी नियति कुछ ऐसी ही होती है।
क्या वे होते हैं कहानी में जब आदमी आँसू पोंछते हुए यह कहता है कि— भूत भाई, आदमी की कमजोरी की कहानी अपनी दुनिया को मत बताना –तो यहाँ कई सवाल भी खड़े होते हैं। अपने शक्तिशाली समझने वाला आदमी क्या सचमुच भूतों से डरता है, या मात्र दिखावा करता है? कहानी के अंत में यह संवाद आदमी की असलियत को खोलकर जिस प्रकार सामने रखता है उससे उसकी मासूमियत का भी पता चलता है:—- “मैं दूसरों को इस्तेमाल करना नहीं जानता। कोई कारनामा नहीं कर सकता। शायद इसीलिए मेरी दुनिया के लोग मुझे नालायक समझते हैं। मैं तुम्हारी मदद क्या करूँगा, मैं तो खुद दूसरों पर बोझ हूँ।”
बस इस कड़ी को यहीं विराम देता हूं. अब बाकी बातें अगली कड़ी में…..
क्रमश:
No Comment! Be the first one.