चैप्टर – 2
अर्चना — तुम्हें तो संडे—सटरडे की छुट्टी मिल जाती है पर मेरे नसीब में तो वह भी नहीं है। क्या बकवास बनकर रह गई है जिंदगी!
वेद प्रताप — चलो ऐसा करते हैं कि एक बाई लगा लेते हैं। इससे तुम्हें आराम हो जाएगा। मैं रानू से कह दूंगा कि घर के काम—काज में मम्मी का कुछ सहयोग कर दिया करे। रही बात तुम्हारी तबियत की तो मैं कल छुट्टी लेकर तुम्हें डॉक्टर सुषमा त्रिपाठी को दिखा दूंगा।
वेद प्रताप की नरम स्वर में कही गईं बातें अर्चना को बिलकुल भी नहीं सुहाई। वह तमक कर बोली ।
अर्चना — बाई को देने के लिए तुम्हारे पास पैसे हैं, मेरे लिए नहीं। मै तो बस अपने अधिकार को मांग रही हूं। इस बार कोई टालामटोली नहीं चलेगी मिस्टर वेद! मुझे सैलरी चाहिए तो चाहिए! बस!
अर्चना के दिमाग में आज हुए महिला सम्मेलन की बातों ने जैसे जड़ें जमा ली थीं।
अपनी पत्नी के तेवर देखकर वेद प्रताप को भी गुस्सा आ गया और वे बिना टिफिन लिए ही दफ्तर निकल गए। अपने मम्मी—पापा को लड़ते झगड़ते देखकर रानू भी सहम गई और वह ध्यान बंटाने के लिए पढ़ाई का नाटक करने लगी। हालांकि वह भी मन ही मन सोच रही थी कि हर महीने उसे भी कुछ रुपये पापा देने लगें तो मजा आ जाए। कॉम्पलेक्स के अधिकतर घरों की तरह ही इस घर की भी सुख—शांति भंग हो गई और सुबह हुए महिला सम्मेलन की छाया बड़ी तेजी से पांव पसारने लगी। वेद को दफ्तर की कैंटीन में खाना खाना पड़ा और रानू तथा अर्चना ने होटल से आनलाइन खाना मंगाकर काम चलाया।
अब इसे संयोग कहें या दुर्योग होटल का खाना पता नहीं कैसा बना हुआ था कि खाना खाने के दौरान ही मां—बेटी दोनों की तबियत बिगड़ने लगी। उन्हें उल्टियां होने लगीं और दस्त लगने लगे। उन्होंने बहुत घरेलू टोटके आजमाए पर तबियत नहीं सुधरी तो नहीं सुधरी। उनकी बेकाबू होती तबियत के बारे में उनके पड़ोसी अजय को पता चला तो उन्होंने वेद को फोन लगा दिया। वेद दफ्तर से फौरन भागकर घर आ गए।
वेद प्रताप — अरे! यह क्या हुआ, डियर! तुम दोनों की स्थिति तो बेहद खराब है। मैं अभी कुछ करता हूं।
यह कहकर वेद ने आनन—फानन में उन दोनो को अस्पताल ले जाने की व्यवस्था की। डॉक्टर सुषमा त्रिपाठी ने उनकी ढेरों जांच कराईं और अस्पताल में भर्ती कर लिया। मां—बेटी दोनों को ड्रिप चढ़ने लगी। वेद अर्चना और रानू के बेड के बीच रखे स्टूल पर बैठ गए।
इस दौरान अर्चना वेद से कुछ खिंची—खिंची सी रही पर जब उसने देखा कि उसके पति रात भर जगकर अपनी तबियत की भी परवाह नहीं करते हुए डटे हुए हैं तो उसके तेवर कुछ ढीले पड़ने लगे। रानू अपने पापा को हैरानी से देखे जा रही थी कि वे कैसे भाग—भाग कर उनके लिए दवा आदि लाने और जरूरत पड़ने पर नर्स, डॉक्टर आदि को बुलाने जा रहे हैं। वे कैसे उन दोनों के माथे पर हाथ फेरकर उनकी हौसला अफजाई करने में लगे हैं। इन तीनों के लिए रात का एक—एक पल गुजारना भारी पड़ रहा था।
अगली सुबह कुछ राहत भरी रही। मां—बेटी की परेशानियां कम होने पर उन्होंने अजय को उन दोनों के पास बैठने के लिए बुला लिया और फिर घर जाकर पत्नी और बेटी के लिए दाल—दलिया बना कर ले आए। दो दिन तक यही सिलसिला चलता रहा। दो दिन अस्पताल में बिताने के बाद इस परिवार को वहां के चक्कर से निजात मिली।
क्रमशः (काल्पनिक कहानी )