आखिरी चैप्टर
जब घर का माहौल थोड़ा ठीक हो गया तो वेद अर्चना के सिर पर हाथ फेरते हुए बोले ।
वेद प्रताप — सच अर्चना! इन दो दिनों में मैंने देख लिया है कि तुम्हारा काम कितनी अहमियत रखता है। सच पूछो जब मैं खाना बनाने के लिए गैस आन करता था तो डर लगता था कि कहीं कुछ उल्टा—सीधा न हो जाए और गैस का सिलेंडर न फट जाए। आखिर कितने दिनों के बाद मैं किचन में गया। सच में तुम रोज कितने बड़े खतरे से घिरी रहती हो! अरे, मुझे तो केवल दो दिन खुद के लिए और तुम दोनों के लिए खाना बनाना पड़ा पर तुम तो पूरे साल भर यह काम करती हो। यह घर केवल मेरी सैलरी से नहीं चलता बल्कि हम सबको पोषण देकर नौकरी करने वाला बनाने के लिए तैयार करने वाली तुम ही हो। तुम हमारा पूरी शिद्दत से खयाल रखती हो। बीमार पड़ने पर सेवा करती हो। यदि तुम हमारी अन्नपूर्णा हो तो रानू मेरी हिम्मत है! उसकी चेहरे की मुसकान मेरा गम भुला देती है। उसके अरमान, उसकी ख्वाहिशें मुझे और कमाने की प्रेरणा देते हैं।
अपने पति के ऐसे विचार सुनकर अर्चना का हृदय भर आया। वह कुछ झिझक कर बोली ।
अर्चना — यह ठीक है कि तुम्हें हमारी अहमियत समझ में आई। पर मुझे भी यह समझ में आ गया है कि तुम्हारे बिना मैं अधूरी हूं। तुमने मुझसे जीवन साथी जैसा गहरा रिश्ता जोड़कर और मेरी गोद में रानू जैसा फूल डाल कर मुझे परिपूर्ण बनाया है! सच हम एक—दूसरे के बिना रह नहीं सकते। तुम मुझे जो प्यार और स्नेह देते हो, वह मेरी सबसे बड़ी दौलत है। हर चीज पैसे से नहीं तौली जा सकती। आखिर, एक दूसरे के प्रति प्यार, भरोसे और ख्याल से ही तो फैमिली का तानाबाना बुना जाता है।
ये दोनों ऐसी ही भावुकता से भरी बातें करने में लगे हुए थे कि तभी अजय भी वहां आ पहुंचे। नमस्कार—चमत्कार के बाद अजय ने पूछा ।
अजय — और भाभी जी! कैसे बिगाड़ ली आपने अपनी तबियत!
अर्चना — अरे कुछ नहीं! मैं उस महिला नेता की बातों में आ गई थी और इनसे लड़ाई कर बैठी थी— सैलरी के लिए।
यह सुनकर अजय हंसने लगे और बोले— तो उस महिला सम्मेलन की आंच आपके घर तक आ गई भाभी जी! क्या ही अच्छा होता कि वेद भाई इस बारे में मेरे से बात कर लेते, तो मैं उन्हें रास्ता बता देता! मैं यह बताता कि कैसे हमारे घर तक उस सम्मेलन की लपटें नहीं पहुंच सकीं।
यह सुनकर वेद और अर्चना दोनों एक साथ बोले — बताइए न, भाईसाहब! आप ऐसा क्या करते हो कि आपके घर में भाभीजी ने सैलरी को लेकर लड़ाई नहीं की!
अजय बोले — गृहस्थाश्रम दुनिया के सबसे कठिन आश्रमों में से एक होता है। हमें न केवल अपनी पूरी फैमिली का खयाल रखना होता है बल्कि आने—जाने वालों, घर में पाले जाने वाले पशु—पक्षियों से लेकर रिश्तेदारों, समाज आदि के प्रति अपने दायित्चों का भी खयाल रखना पड़ता है। फिर पत्नी को तो अर्धांगिनी कहा जाता है। मैं इसी विचारधारा का पालन करते हुए सदैव शिव के अर्धनारीश्वर रूप का ध्यान रखता हूं। जैसे ही मुझे जो सैलरी मिलती है उसका आधा हिस्सा मैं अपनी पत्नी के हाथ में रख देता हूं। उसकी रजामंदी लेकर मासिक बजट बनाता हूं और संभावित खर्चों के लिए जरूरी तैयारी रखता हूं। पत्नी को दिए जाने वाले रुपये—पैसे का मैं हिसाब नहीं पूछता। वह भी किफायत से चलती है और फिजूलखर्ची नहीं करती। मैं अपने बेटे राजू को भी जेबखर्च देता हूं ताकि उसमें भी रुपये—पैसे के प्रति समझ पैदा हो सके।
वेद और अर्चना — वाह! भाईसाहब! आपने तो हमारी आंखें खोल दीं। हम इस विचार को अपने जीवन में भी लागू करेंगे। सच में जीवन साथी ही सच में एक दूसरे का सबसे पुख्ता सहारा होते हैं। दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं। अगर दोनों एक ही दिशा में एक साथ चलेंगे तो घर में मंगल ही मंगल होगा। कभी शनि पास फटकने नहीं पाएगा।
वेद और अर्चना अजय की बातें सुनकर गदगद हो गए। अपने मम्मी—पापा को खुश देख रानू के चेहरे पर भी मुस्कान तैर गई। उसे भी अगले महीने से जेबखर्च मिलने की बात लगभग तय हो गई थी।
(काल्पनिक कहानी )