आखिरी चैप्टर
हमने पेट्स की दुकान की मालकिन से कहा – हमें कुत्ता चाहिए! बस हमारे मुह से इतने वर्ड निकल ही पाए थे कि शाॅप में मौजूद तमाम डाॅगीज से जोर जोर से भौंक-भाक कर आपत्ति दर्ज करानी शुरू कर दी! मानो हमने उनकी बहुत बड़ी मानहानि कर दी हो!
शाॅप की मालकिन ने बड़ी मुश्किल से उन्हें चुप कराया! फिर हमसे नसीहत भरे सुर में बोली- साॅरी! आपको इन्हें कुत्ता नहीं कहना चाहिए था!
हम – फिर क्या कहना चाहिए थाघ्
शाॅप मालकिन – आज कुत्ते को कुत्ता कहना उसकी तौहीन करने के बराबर है! उसे बेेटा कहिए, पप्पी कह दीजिए, डाॅगजी कहिए पर कुत्ता तो हरगिज मत कहिए!
हम – फिर इस सुनहरे से बेटे आईमीन डाॅगजी की कीमत क्या है?
शाॅप मालकिन – जी यही कोई 15 हजार!
हम – अरे बाप रे! 15 हजार पर हमारा बजट तो 2 हजार का है!
शाॅप मालकिन – आपके बजट से दुनिया थोड़े ही चलती है! अब देखिए न 2 हजार के नोट तो कबके बंद हो गए! जो चीज ससार में रही नहीं उसकी क्या कीमत! इसलिए हमने इसके रेट 15 हजार रखे हैं। बिलकुल विदेशी नस्ल का है!
हम – यह हिंदी तो समझ लेता है? हमारी अंगे्रजी जरा कच्ची है!
शाॅप मालकिन – अजी पपीज का क्या? वे तो जिस भाषा में कमांड दो सब सीख जाते हैं! वे तो बेहद समझदार होते हैं। जापानीज जापानी में उन्हें सिखाते हैं, चाइनीज उन्हें अपनी चूं-चां वाली भाषा में तो बिहारी भोजपुरी में ,वो सब समझ जाते हैं।
हम- ओह! आपने काफी रिसर्च किया है!
शाॅप मालकिन – पापी पेट का सवाल है! करना ही पड़ता है!
हम – तो फिर हमें कोई सस्ता सा डाॅगी दे दीजिए तो खाता और भौंकता कम हो!
शाॅप मालकिन – वो कोने में सिंगल फ्रेम डाॅगी बैठा है! बीमार है सो खाता-पीता कम है! गंदगी भी कम करता है। वही आपके लिए ठीक रहेगा्!
हम- वो कितने का है?
शाॅप मालकिन – यही कोई 4 हजार का !
हम- क्या? चार हजार का? पर हमारा बजट तो दो हजार का है! यह किश्तों में नहीं मिल सकता?
शाॅप मालकिन – ऐसा करें कि मैं चार किश्तें बांध देती हूं। आज सिर वाले हिस्से के एक हजार दे दीजिए! अगले महीने बीच के पोर्शन के और तीसरे महीने पीछे की दोनों टांगों के पैसे दे देना। फिर आखिरी किश्त पूंछ की होगी – एक हजार रुपये की! जब आपकी किश्तें पूरी हो जाएंगी तो हम आपको अपना पूरा डाॅगी दे देंगे!
हम समझ गए कि शाॅप मालकिन हमें भिगो-भिगो कर निचोड़ने की सोच रही है। अब तो इज्जत पर बन आई है। यदि हमारा डाॅगी मिशन विफल रहा तो डाॅगी क्या सोचेगा कि इनकी मुझे खरीदने की हैसियत ही नहीं है। बस, चले आए मुंह उठाकर! पइसा न कौड़ी,बीच बाजार में दौड़ादौडी! अत‘ हमने चुपचाप उसे चार हजार रुपये थमाए और लेके पपी घर को आए!
अब रात दिन उसकी सेवा हो रही है। बच्ची बेहद खुश है! बच्ची की अम्मां यानी मुझे जहां दिन में एक बार घर में पोंछा लगाने में जोर आता थाए अब चार-चार बार पोंछा लगा रही हूं! क्योंकि वह पपी थोड़ी-थोड़ी देर में कभी बाढ़ लाता रहता है तो कभी साॅलिड चीजें कभी आगे से कभी पीछे से निकालता रहता है। इस सारी कवायद से मेरी सेहत भी सुधर रही है और उस प्यारे से पपी की भी! आखिर साफ-सफाई से फर्क तो पड़ता ही है!
बच्ची मोबाइल से कम और पपी से ज्यादा चिपक रही है! उसे सुबह-सुबह घुमाने ले जाती है! वह पेरेंटिंग भी सीख रही है और केयरिंग भी! हमें उम्मीद है कि पपी के आने से राहु ग्रह की दशा में सुधार होगा और हमारा जीवन और सुखी हो जाएगा!
क्रमशः
(काल्पनिक रचना )