चैप्टर -1
सुनिए! संजीव चौधरी ने न्योता भेजा है। बोकारो में उसके रेडीमेड गारमेंट्स के नए शोरूम का उद्घाटन है। पापा को उन्होंने इस कार्यक्रम का मुख्य अतिथि बनाया है। हमलोग चलेंगे न? आभा ने कूरियर से मिले निमंत्रण—पत्र का लिफाफा खोलते हुए अपने पति रमाकांत यादव से पूछा।
अरे! वाह! वह इतना बड़ा आदमी हो गया? मैंने बचपन में उसे देखा था सेक्टर—4 में फुटपाथ पर बनियानों की दुकान लगाते हुए। बेचारे ने बहुत स्ट्रगल किया था तब कहीं जाकर इस मुकाम तक पहुंच पाया है। रमाकांत ने मन ही मन पुरानी यादें ताजा करते हुए कहा। इसके साथ ही उसके मन में संजीव से जुड़ी यादों की रील चलने लगी।
उसे वे दिन याद आए जब वह हाईस्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। संजीव के पिता भरत चौधरी और रमाकांत के पापा श्याम किशोर दुबे दोनों ही वीएसके स्टील प्लांट में काम करते थे। भरत प्लांट में जीप ड्राइवर थे और रमाकांत के पिता जोनल इंजीनियर थे। वे श्याम किशोर को ड्यूटी पर ले जाने और ड्यूटी पूरी होने के बाद उन्हें जीप में बिठाकर क्वार्टर तक छोड़ने का काम बड़ी मुस्त्तैदी से निभाते थे। चाहे आंधी आए या बरसात उन्होंने कभी भी अपनी ड्यूटी में नागा नहीं किया। ऐसा ही नेचर श्याम किशोर का था। वे भी समय से ड्यूटी पर जाने के लिए तैयार रहते और प्लांट में अपना काम पूरा होने के बाद ही घर लौटते थे।
भरत दो कमरों वाले ई टाइप क्वार्टर में रहते थे और श्याम किशोर पांच कमरों वाले बी टाइप के क्वार्टर में। दोनों के क्वार्टर करीब—करीब थे। संजीव की चार बहनें थीं और वह अपनी फैमिली में इकलौता लड़का था। संजीव की मां दमयंती हाउस वाइफ थीं। जबकि रमाकांत की मां वीणा स्कूल में टीचर थीं। रमाकांत की कोई बहन नही थी और वह अपने परिवार में इकलौता लड़का था। वह रक्षा बंधन पर संजीव की बहनों से ही राखी बंधवाया करता था।
संजीव ने परिवार की परिस्थिति को समझते हुए सातवीं कक्षा से ही बनियान की दुकान लगाना शुरू कर दिया था। उसके पापा को रिटायर होने में केवल छह साल बचे थे और बेटियों की कालेज की पढ़ाई पूरी होने के बाद उनके हाथ पीले करने की जिम्मेदारी को लेकर वे अक्सर चिंतित रहा करते थे। प्लांट से मिलने वाली मंथली सैलरी के अतिरिक्त जो भी एरियर, बोनस आदि मिलता था सब फैमिली को पालने में ही खर्च हो जाता था। कभी—कभी तो उन्हें घर का खर्च चलाने के लिए श्याम किशोर से उधार लेना पड़ता था। श्याम किशोर भी दरियादिल थे। भरत की दिल खोलकर मदद करते थे। वे उधार देने के बाद अक्सर भूल जाते थे कि उन्हें भरत से पैसे लेने हैं। पर भरत भी उसूलों के पक्के थे। सात तारीख को सैलरी मिलने के दो—तीन दिनों के भीतर ही श्याम किशोर के पैसे चुकाने पहुंच जाते थे।
श्याम किशोर ने जब सुना कि संजीव ने सेक्टर—4 में बनियानों की दुकान शुरू की है तो उन्होंने रमाकांत से कहा था— बेटा! तुम्हारे छोटे भाई ने बिजनेस शुरू किया है। तुम्हें जब भी जरूरत हो, बनियानें की तो उसी की दुकान से खरीदना। मैं भी अपने लिए उसकी दुकान से ही बनियानें खरीदा करूंगा। हमें बिज़नेस मेन को प्रोत्साहन देना चाहिए। रमाकांत और उसके पापा अक्सर संजीव से ही बनियानें खरीदा करते थे।
संजीव का स्वभाव अच्छा था। वह घर की परिस्थिति को लेकर कभी तनावग्रस्त नहीं रहता था। जब भी कोई खरीदार उसकी दुकान से बनियानें खरीदने आता वह हंसते—मुस्कराते उसका स्वागत करता और ग्राहक की रुचि और आवश्यकता के अनुसार बनियानें दिखाने में कोई कोताही नहीं बरतता। संजीव के स्वभाव में मानो चुंबक था। ग्राहक उसकी दुकान की तरफ खिंचे चले आते थे।
संजीव ने अपने पापा पर आर्थिक बोझ नहीं पड़े इसके लिए कई उपाय कर रखे थे। न वह सिनेमा हाल में पिक्चर देखने जाता था और न ही अपने क्वार्टर से करीब तीन किलोमीटर दूर स्थित दुकान तक रोज शाम को पहुंचने के लिए किसी तरह का वाहन इस्तेमाल करता था। वह पैदल चलकर ही दुकान तक पहुंचता था। उसने न तो कोई खराब आदत पाली थी और न ही व्यर्थ की बातों में अपना समय गंवाता था।