आखिरी चैप्टर
जल्द ही जब घटनास्थल पर तमाशबीन बड़ी संख्या में इकट्ठे होने लगे तो गुंडों ने भाग निकलने में ही भलाई समझी। जब गुंडे भाग गए तो घटनास्थल के पास एक गुमटी के दुकानदार रवि चौहान ने आभा को संभाला। उन्होंने एंबुलेंस बुलवाई और एफआईआर लिखवाने के बाद भरत तथा श्याम किशोर को अस्पताल में भर्ती कराया।
प्लांट के मैनेजमेंट को जब इस घटना का पता चला तो उन्होंने बिमलेश को सस्पेंड करके उसके खिलाफ विभागीय जांच शुरू करवा दी। इस प्रकार उसके प्लांट से तांबा चोरी करने के मंसूबे पर पानी फिर गया।
भरत को करीब तीन महीने अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा जबकि श्याम किशोर को पंद्रह दिन में ही छुट्टी मिल गई। भरत के भर्ती रहने के दौरान संजीव ने गृहस्थी को भी अच्छे से संभाला और अपनी दुकान को भी। उसने रमाकांत के साथ मिलकर अस्पताल का मोर्चा भी संभाला और अपने दोस्त के पिता तथा अपने पिता की देखभाल करने, उनके लिए दोनों घरों से भेजे जा रहे टिफिन, दवाइयां आदि लाने, डाक्टरों से बात आदि करके उनके हालात का जायजा लेने आदि के काम को बखूबी अंजाम दिया। उसने अपने जीवन में आ रही कठिनाइयों को एक अवसर की तरह लिया और अपना हौसला बुलंद रखा।
संजीव ने दुकान को पूरा समय देने के लिहाज से कालेज की दहलीज पर आकर नियमित पढ़ाई करने के बजाय एक ओपन यूनिवर्सिटी से डिग्री कोर्स पूरा किया। वह दिन में दुकान संभालता, शाम को अस्पताल जाता और फिर देर रात घर लौटता। वह पढ़ाई करने के लिए देर रात तक जगता रहता और जब तक अपना दैनिक लक्ष्य पूरा नहीं कर लेता, उठता तक नहीं था। न खाने की सुध रहती, न पीने की। उसके मन में बस एक ही इच्छा बलबती थी कि कैसे भी उसके तथा उसके दोस्त के पापा की सेहत सुधर जाए। वह अपनी बहनों तथा मां का पूरा खयाल रखता। उनकी हर तरह से मदद करता। परिवार की आर्थिक परेशानी दूर करने के लिए मां ने घर—घर जाकर बर्तन मांजने का काम किया तो बहनों ने एक अचार फैक्ट्री के लिए पेकिंग करने का काम पकड़ लिया। उसे पूरा भरोसा था कि कितनी भी अंधेरी सुरंग हो,उसके आखिर में उजाला होता ही है। ऐसे ही उसकी जिंदगी में अभी जो अंधेरा छाया है वह एक दिन उजाले में बदल ही जाएगा। इसलिए वह पूरी मेहनत और लगन के साथ अपने कामों और फर्ज को अंजाम देता रहता। उसने पापा के लिए दो बार खून भी दिया था और उन पर कातिलाना हमला होने के बावजूद उनका मनोबल गिरने नहीं दिया।
भरत जब अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर लौटे तो अपने बेटे के बारे में देख—सुनकर उन्हें काफी गर्व महसूस होने लगा। जब तक उनका रिटायरमेंट होता तब तक संजीव ने अपने बिजनेस नई हाइट्स पर पहुंचा दिया और धीरे—धीरे उसने फुटपाथ से उठकर शहर के बीचोंबीच रेडीमेड कपड़ों का भव्य शोरूम खोल लिया। उसकी बिजनेस में कामयाबी के चर्चे दूर—दूर तक होने लगे।
इधर रमाकांत का भी सलेक्शन आईआईटी, खड्गपुर में हो गया था और उसने वहां से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का कोर्स पूरा किया था। इसी पढ़ाई के दौरान उसकी आभा से मुलाकात हुई थी। उसने जल्द ही आभा को अपने अनुकूल समझकर उसकी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। यह दोस्ती पहले प्रेम में बदली। दोनों को एक दूजे के बिना चैन ही नहीं पड़ता था। इसके बाद मेल—मुलाकातों का लंबा दौर चला और डिग्री पूरी होने—होने तक दोनों विवाह करने के लिए राजी हो गए। इसके बाद इन दोनों को बोकारो थर्मल पावर में नौकरी मिल गई। दोनों वहीं सेट हो गए।रमाकांत की संजीव को लेकर यादों की रील यहीं पर थम गई।
उद्धाटन वाले दिन आभा रमाकांत के साथ शोरूम पर पहुंचे। श्याम किशोर ने संजीव के शोरूम का फीता काटकर उद्घाटन किया। संजीव ने उनकी जमकर खातिर की। जब कार्यक्रम पूरा हो गया तो रमाकांत ने पूछा — संजीवजी! अब आप कौन सा मोर्चा फतह करने वाले हो?
संजीव ने अपनी चारों बहनों की तरफ इशारा करके कहा कि बस, इनके हाथ पीले करने हैं। दो एक साल में मैं यह काम भी कर दूंगा। लड़के देख लिए हैं। जल्द ही इनके विवाह का न्यौता भी आपको भेजूंगा।
यह सुनकर रमाकांत ने कहा — और फिर आपके पापा—मम्मी क्या करेंगे?
इस पर तपाक से संजीव बोला — वो मेरे लिए दुल्हन ढूंढेंगे और फिर उसके बाद आराम करेंगे! यह सुनकर सब हंसने लगे।
(काल्पनिक कहानी )