रचनाकार: शबनम मेहरोत्रा, कानपुर
सुन सखी
भोर की मंद सुगंधित पवन पिया का संदेस लाती हैं ,
मुझे गुलाब जल व दुग्ध से स्नान कराओ सखी
हल्दी चंदन केसर उबटन लेप लगाओ री सखी
प्राणप्रिय प्रियतम के आगमन की आहट री सखी
सुवासित करो देह मेरी लाओ बेला चाँदनी कलियॉं री सखी
चलो पुष्प वाटिका सुसज्जित कर केशों की वेणी री सखी
पुष्पों से अलंकृत करो मुझे केश गूँथ लम्बी चोटी बना री सखी
हुई आधीर भई मेरी हिरनी सी चाल,लचके मोरी कमरिया
आज न कोयल कूहूक रही न मोरों की केय केय
पपीहरा पिहू पिहू न गाये रे न चातक की पी पी
गजगामिनी चाल, चोटी मेरी बल खाती लहराती
नागिन का भ्रम हो मयूर बार बार मारें चोंच चोटी पे
कमलनयन भ्रमर कि भाँति मेरे मुख का मकरंद पान करेंगें
मिला गुलाबी अधरों को हे सखी आज मधुरस पान करेंगे
वियोग संतप्त पल बदल रहा खग्रास से चंद्र निकल रहा
पवन भी सुगम को अगम कर केवल तुम्हारे लिए गा रहा
प्रणय गीत गा दृग जल से पग धोऊँ बिदेस न जाने दूँगी
अपने प्रेम प्रणेता को आज प्रेम पियूष पान करा दूँगी
हार के तुझसे जीतूँगी तुझको प्रेम का पाठ पढ़ा दूँगी
मोरा मन आतुर पिया मन मोह लूँगी वशीकरण करा दूँगी ।।
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घूंघटा गिरा के (भोजपुरी लोक गीत)
घूंघटा गिरा के रतिया करे इंतजार हो
कब अ ई हे चांद पिया आज हामार हो
सज के संवरके आज आइल रतिया
अपन हाते अपनी सजेली है सेजीया
बड़ी बोझ लागे अब जोबना के भार हो
कब अ ई है चांद पिया आज हमार हो
सावन चंदा हमरे गरवा लगवा
थोड़ी देर गोदिया मै हमके बिथावा
नहीं त बेकार जाई सारा श्रृंगार हो
कब अ ई हे चांद पिया आज हमारा हो
चन्द्र कहूँगा चंदा या बोलूँ साजन देखा न तडपे कैसे ये शबनम
अहसे तो निक रहतल रहती कुंवार हो कब अ ई हे चाँद पिया आज हमर हो
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तोहके ले जैबो हम अमृतसर गोरिया (लोक गीत)
और थोड़े ही दिन अब तू ठहर गोरिया
तोहके ले जैबो हम अमृतसर गोरिया
वहाँ दिखाइबो हम स्वर्ण मंदिर
संगे ले जैबो हम बाघा बार्डर
दुर्गयाना टेंपल औरे देखैबो
यहाँ राम कृष्ण का सुंदर मंदिर
अपनी किस्मत भी जाई संवर गोरिया,,,,,,,
पर्शियन म्यूजियम तोरा दिखेंबो
गोविंद गढ़ का किला घुमाइबो
वहाँ जालियाँवाला बाग देखिहों
अंग्रेज की बर्बरता बातइबो
वहा कुर्बानी का था मंजर गोरिया
तोहके ले जायबो हम अमृतसर गोरिया
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पयाम दे हूँ (गजल )
पास आजाओं पयाम दे हूँ
अपने कसीद से पैगाम देती हूँ
जो भी अंजाम हो खुदा जाने
लो लिफाफे पे तेरा नाम देती हूँ
खोल के खत उनवान पढ़ना
तुमको पहले सलाम देती हूँ
आज मिलने तुम जरूर आना
तुम्हारे नाम हसीं शाम देती हूँ
यूँ भटकने से क्या होगा शबनम
भटकते पैर को कायाम देती हूँ
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तुम्हारी चालबाजी (छंद मुक्त कविता )
तुम्हारी चालबाजी और —
चरित्र से , भिज्ञ रह कर भी
मै अनभिज्ञ कब तक रहूँ ।
या फिर अनभिज्ञ रहने का
करती रहूँ ,
नाटक ।
भंवरों की तरह —
एक फूल से दूसरे फूलों का
रसपान करना आदत है
तुम्हारी ।
याद रखो –अपने को अपना होने
का दिलाते रहो
अहसास ।
वरना सीख जाएगा वह अकेले
जीना ।
घूट घूट कर आँसुओं को पीना ।
क्या करोगे तब ?
निश्चित छोड़ अनिश्चित की ओर
मत भागो
अनिश्चित तो अनिश्चित है ही
चला जाएगा निश्चित भी ।
और मृगतृष्णा में —
भटकते रहोगे,,,भटकते रहोगे
रेगिस्तानों में ।