रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
एक अच्छे लेखक एवं विचारक ने अपने जीवन में बहुत सी सामाजिक विषयों की पुस्तकें लिखीं, प्रकाशित करवाईं, प्रचारित करवाईं और बटवाईं। प्रारंम्भिक दौर में उनकी पुस्तकों को काफी प्रशंसा मिली, प्रोत्साहन मिला, उनकी कुछ रचनाओं को शिक्षा के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करने की संस्तुति बड़े बड़े लोगों ने की।
समय बीतते बीतते वे और उनका लेखन कब अप्रासंगिक होते चले गए उन्हें पता ही न चला। शायद जमाना रफ्तार पकड़ चुका था और वे वहीं अटके हुए थे। उनकी नई कृतियों की मांग नगण्य सी रह गई थी। एकाध प्रकाशक बस पुराने रसूखात के चलते उन्हें झेल भर रहे थे।
कम्प्यूटर युग आ गया। आभासी दुनिया का वर्चस्व बढ़ गया। हर प्रश्न के उत्तर के लिए सामान्य जन गूगल करने लगे। पुस्तकों से मोह भंग होने लगा। पुस्तकें लाइब्रेरी की शोभा भर रह गईं! धीरे धीरे उनके घर पर भी लाइब्रेरी बन गई। पढ़ने से ज्यादा कोर्स पूरा होने के टिप्स मिलने लगे। पढ़ने की आदत घटने लगी। इन हालातों को देख विचारक महोदय अवसाद में चले गए।
एक दिन वे स्वयं की खोज करने देशाटन को निकल पड़े ये सोचकर कि शायद वो कोना मिल जाए जहाँ लोग पढ़ने मात्र का शौक रखते हों।
यों घूमते हुए वे ऐसे सुदूर गाँवों की ओर चले गए जहाँ मात्र औपचारिकता भर के लिए सरकारी स्कूल तो थे किन्तु पढ़ाने वाला नदारत रहता था। बच्चे आते थे इस भय से कि क्या पता कब मास्साब आ जायें और उनकी खबर लेने लगें। वहाँ बच्चों को अपने पाठ्यक्रम स्वयं ही कंठस्थ करने होते थे। कंप्युटर क्या होता है, वे नहीं जानते थे।
उन विचारक महोदय ने एक बात वहाँ गौर से देखी कि वहाँ बच्चों को अपने स्कूली कोर्स के इतर कोई भी पाठ्य सामग्री पढ़ने का बड़ा शौक रहता था। उन इलाकों में समाचार पत्र नहीं आते थे। कभी सामान की पैकिंग में लिपटे अखबार के टुकड़े को वे झपट लेते और कई लोग बारी बारी से उसे पूर्णत: पढ़कर ही छोड़ते थे। कोई कागज का पुरजा हवा में उड़ता हुआ आ जाए तो वहाँ के लोग उसे पकड़कर उलट पलट कर देखते थे कि क्या लिखा है? कहने का तात्पर्य ये है कि वे हर पठनीय सामाग्री को शौक से ही आत्मसात करने का प्रयास करते थे, भले ही वो खबर उनके काम की हो या न हो।
विचारक महोदय को इस बात का संतोष मिला कि अभी दुनिया में पुस्तक प्रेम कायम है। बस, इसे दिशा देने की जरूरत है। वे उस ठेठ गाँव के सरपंच के घर ठहरे हुए थे। एक बार वे वहाँ अपनी ही एक पुस्तक पढ़ते हुए, सिरहाने छोड़ कर बाहर खेतों की ओर घूमने निकल गए। एक घंटे बाद जब वे लौटे तो देखा कि घर की अल्प शिक्षा प्राप्त दो लड़कियां उसी पुस्तक को खोलकर पढ़ने में जुटी हुईं थी। विचारक महोदय जी को आता देख झट से पुस्तक को सिरहाने रखने दौडीं।
विचारक ने उन्हें बुलाया और पूछा – “अभी अभी जो भी दोनों ने पढ़ा है, क्या बता सकती हो?”
“जी, बाबूजी! ” दोनों में बड़ी वाली बोली।
“… तो बताओ!”
“कोई विवेकानंद जी के बारे में लिखा था, उन्होंने विदेश में जाकर जीरो विषय पर ऐसा भाषण दिया था कि विदेशी लोग अवाक रह गए!” बड़ी बोली।
“क्या तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है?
” बहुत अच्छा!”
विचारक को लगा कि उसकी पुस्तकों की कदर यहाँ है। उसने सरपंच से अनुरोध करके अपने साथ लाई कुछ पुस्तकों को उसके मेहमान वाले कमरे में अलमारी में सार्वजनिक पठन हेतु रखवा दीं। उसने कभी और पुस्तकें लाने का वादा भी वहाँ के लोगों से किया और लौट गया।
कालांतर में वह पुन: उस गाँव में गया और अपनी बहुत सी पुस्तकें वहाँ के सरपंच को देने गया तो देखकर उसे ताज्जुब हुआ कि सरपंच ने वो कमरा जाजम बिछा कर वहाँ के लोगों के बैठकर पढ़ने के लिए निश्चित कर दिया था। जब विचारक महोदय वहाँ पहुंचे तो बहुत से किशोर और बड़ी उम्र के पुरुष व महिलाओं को उनकी पुस्तकों को पढ़ते हुए पाया।
विचारक महोदय खुशी से आँख की कोर पर ठहरे आँसू को पोंछते हुए सोचने लगे कि उन्हें आज उनकी प्रकाशित पुस्तकों की सही कीमत मिल रही है।
(काल्पनिक रचना)