रचनाकार : कमलानाथ , मुंबई
चैप्टर-2
बाबूजी की इच्छा थी कि मैं जल्दी से जल्दी पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊं । जैसी शायद हर बाप की होती है. पर वे गुज़रते सालों की गति को दो से गुणा करके तेज़ नहीं कर सकते थे और न मैं स्कूल और उसके बाद कॉलेज के इम्तिहान एक साल में दो के हिसाब से पार करके अपने पैरों पर खड़ा हो सकता था ।
पढ़ाई के बाबत तो उनको खुश रखने के लिए मैंने तरकीब निकाल ली थी कि एक छोटी किताब मैं हमेशा अपने पास छुपा कर रखता था और उनके पैरों की आहट सुनते ही पढ़ने का या उसमें से कुछ रटने का नाटक करने लगता था । मैं महसूस कर सकता था किताब मेरे हाथ में और स्वेटर मेरे शरीर पर देख कर उनको बड़ा संतोष मिलता था। . उनका प्यार जताने का तरीका यही था कि वे वही सब ताकीद करते रहें जिन पर अमल करके मैं तंदुरुस्त रहूँ, ताकि पढ़ाई पर ज़्यादा ध्यान दे सकूं । .
जिन दिनों शाम से जल्दी ही धुँधलका शुरू हो जाता था और हवा में कभी कभी हल्का सा सर्द अहसास होने लगता था । उससे पहले ही लोहे के बड़े ट्रंक से बाबूजी का शाल निकाल लिया जाता था जिसमें से नैप्थेलीन की गोलियों की बू कई दिनों तक घर में चारों तरफ़ फैली रहती थी ।
. छत में रखी चारपाई पर पूरे दिन धूप में अच्छी तरह गरमी पा लेने के बाद अगले दिन से बाबूजी शाल को ओढ़ते थे ।
घर में ओढ़ने के लिए बाबूजी उस पर इस्त्री करवाना भी लाज़मी नहीं समझते थे । इसलिए जितनी तहों में बंद करके गर्मियों के दिनों में उसे ‘उष्ण-समाधि’ दी गयी होगी ।
वे सभी तहें बड़े लंबे समय तक शाल पर बाक़ायदा अपनी मौजूदगी दर्ज कराती रहती थीं । .
हमारे नैप्थेलीन की बू वाले स्वेटर और कोट भी चारपाई पर धूप सेंकने के लिए शाल के साथ ही रख दिए जाते थे, पर हमलोग ज़िद करते थे कि एक दिन और ज़्यादा इन्हें वहीँ पड़ा रखें ताकि जितनी हो सके, बू कम हो जाए ।
अगले दिन से ही बाबूजी का वही वाक्य फिर सुनाई देने लगता था – ‘अरे भई कुछ गर्म पहन लो’ ।
हमारा शरीर अगर स्वेटर से अलग पाया जाता था तो बाबूजी के सामने आते ही पता लग जाता था कि वे आगे क्या बोलने वाले हैं । .
कई बार मैं खीज में हल्का सा विरोध भी करता था – “बाबूजी, जब सर्दी लगेगी तो मैं अपने आप पहन लूँगा, आप क्यों बार बार कहते हैं?”
वे बस यही कहते – “बेटा, तुम अभी नहीं समझोगे.”
क्रमशः
(काल्पनिक कहानी).