चैप्टर—1
अपने राम को कलम घिसते—घिसते कई दिन हो गए। न घर खर्च के लिए पैसों का जुगाड़ हो पा रहा था और न ही चूल्हा जलाने के लिए रद्दी का जुगाड़! ऐसे में घरवाली सपना देवी को बड़ी कोफ्त होती। वे अपने राम को कोसती हुईं कहतीं— अरे! बेकार में ही एक लेखक से मैंने ब्याह रचा लिया। इतने बड़े हो गए न पैसा कमा पाते हैं और न ही मन की इच्छाएं पूरा कर पाते हैं। सुबह से देर रात तक कलम घिसते रहते हैं पर एक धेला नहीं कमा पाते। अगर कहीं मेहनत—मजूरी कर रहे होते तो कम से कम चार पैसे तो आते। बड़े होते बच्चों के तंग होते कपड़े तो बदल जाते। मैं भी पिछले दो साल से दो धोतियों में काम चला रही हों। मेरी पड़ोसन बबीता को देखो कैसे रोज—रोज ड्रेस बदलती रहती है। उसका पति पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर है और बच्चे बबलू के लिए न तो कपड़ों की कमी रहती है और न ही खेल—खिलौनों की! मियां—बीबी दोनों ही आए दिन पिक्चर, मेला जाते रहते हैं और कभी—कभी वीकेंड पर शहर के बाहर घूमने भी चले जाते हैं। जाने उनके नसीब में कितना सुख लिखा है पर मेरी तो किस्मत ही फूटी है जो एक लेखक के गले मेरे मम्मी—पापा ने बांध दिया! ये लेखक नहीं ले—खाक हैं! न हाथ में दमड़ी और न सिर पर पगड़ी! मेरी तो जिंदगी बर्बाद हो गई!
अपने राम इन तानों को सुनकर समझ गए कि मैडम का हाथ तंग है इसलिए बक—बक कर रही हैं। वे काफी देर तक अपनी बीबी का प्रवचननुमा स्पीच सुनते रहे। फिर बोले— अरी भागवान! पड़ोसी के घर में तो रिश्वत का पैसा बरसता है! वो इंजीनियर विक्की चौधरी है न उसे तीन बार आफिस से चार्जशीट मिल चुकी है— रिश्वतखोरी के आरोप में! हर बार ले—देकर निकल जाता है। और रही उसकी बीबी की बात तो वह वैसे भी बेहद फिजूलखर्च और दिखावापसंद है। चार अशर्फियां क्या आती हैं, पूरा शहर खरीदने चल देती है। अब मैं जो कुछ करता हूं कम से कम सम्मान के साथ तो कर रहा हूं। मोहल्ले सब लोग लेखकजी के नाम से मुझे जानते हैं। जब भी मैं लिखता हूं और वह किसी राष्ट्रीय दैनिक या स्टैंडर्ड की मैगजीन में छपता है तो नाम रोशन होता है। कभी—कभी तो ऐसा लगता है मानो लक्ष्मीजी और सरस्वती जी अपना परंपरागत बैर त्यागकर मेरे लिए छप्पर फाड़कर रुपये—पैसे भेज देती हैं। मालूम है तीन महीने पहले मेरी एक कहानी अहा! बंदगी मैगजीन में छपी तो मुझे पूरे 5000 रुपये का चेक आया था! बस वो जैसे ही वो चेक कैश हो जाएगा ऐश कर लेना! बच्चों को नई—नई ड्रेस दिला देना! और तुम भी नई साड़ी ले लेना पूरे 1000 रुपये वाली!
सपना — बस! मेरे लिए 1000 रुपये वाली साड़ी! अरे! इतने में तो मैं घर की मालकिन नहीं, बाई लगूंगी! फिर मेरे मेकअप और गहनों का खर्चा कौन देगा?
अपने राम — ये सब भगवान पर छोड़ दो। मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं भीम का न्याय! जब यह छप जाएगा और हॉट केक की तरह बिकेगा तो रुपये—पैसे की ऐसी बरसात होगी कि संभाले नहीं संभलेंगे!
सपना — नाम मेरा भले ही सपना हो, पर सपना देखने में तुम अव्वल हो। अरे! ये तो वही बात हुई कि कब बुढ़िया मरेगी और कब भोज खाने मिलेगा! जाने वह उपन्यास कब पूरा होगा, कब पैसा आएगा! तब तक घर का खर्च चलाने के लिए मुझे बर्तन—भांडे सब बेचने पड़ जाएंगे!
अपने राम — अरे! वो जब होगा तब होगा! अभी तो मुझे वह उपन्यास लिखने के लिए जरूरी एनर्जी जुटा लेने दो। क्यों बस्ती बसने से पहले ही उजाड़ने में लगी हो!
क्रमश:
(काल्पनिक कहानी)