रचनाकार : सुशीला तिवारी पश्चिम गांव, रायबरेली
ये बात बहुत पुरानी है। तब मेरा बचपना था । हर तीज-त्यौहार मौसम बहुत अच्छा लगता था,चिन्ता फिक्र से मुक्त जीवन!
बरसात में कागज की नाव बनाकर पानी में बहाना,
अम्मा से छुपाकर पानी में भीगना
सावन माह की हरियाली चारो तरफ अपनी छटा बिखेर रही थी,बरसात की रिमझिम पड़ती फुहार !
दादुर,मोर,पपीहा के अवाज की मधुर ध्वनि अनायास अपनी ओर आकर्षित करती थी।
मेरे दरवाजे पर नीम का बहुत पुराना दरख्त था,मेरी शादी के पैंतीस वर्ष बीत जाने के बाद भी किसी बुजुर्ग की भांति खड़ा है शान से दरवाजे पर,
मैं तो अब जब भी जाती हूँ थोड़ी देर उसके नीचे बैठकर बड़ा सुकून महसूस करती हूँ।
लगता है वो कुछ कह रहा है कि बिटिया अब हमारी डाल सूनी रहती है और मुझे बुजुर्ग पिता की तरह कहता है सावन में जरूर आया करो।
उसी की डाल पर सावन आते ही झूले पड़ जाते थे,
हम सभी बहने और गाँव की हमजोली सहेलियाँ झूलती थी।
शाम को चाची,दादी,भाभी सब स्त्रियाँ झूला झूलने आती और सावन के मनभावन कजरी गीत मधुर स्वर में पारम्परिक तरीके से गाती थी।
एक बार नाग पंचमी के दिन जल्दी से भोजन बनाकर
सब इकट्ठी हो गई,अम्मा की बनाई हुई खटाई चुपके से निकाल कर खूब खाते हुए झूल रहे थे ।
तभी अचानक से एक सहेली झूले पर से दूर गिरकर दीवाल से जा टकराई।
जोर-शोर से रोने लगी सब लोग दौड़कर आये उसे उठाया,उसका एक पैर टूट गया।
झूला बन्द हो गया बस तब से झूला देख कर डर लगने लगा और झूलना बंद हो गया।
पर अब जब भी सावन में रिमझिम बरसात होती है
अनायास ही यादें हरी हो जाती हैं।
नदी की जीवन यात्रा
एक दिन इक नदी अनमनी सी,,,पर प्रेम से परिपूर्ण लहर मारती हुई ,समन्दर में समाहित होने की चाह लिये आगे बढ़ती जा रही थी।
धीरे धीरे गन्तव्य तक पहुंच गई,
पर ये क्या!
सागर ने उसे देखते ही तिरस्कृत भाव से कहा-
न जाने किस-किस से मिलकर कहाँ – कहाँ से होकर आई हो?
समन्दर की बात सुनकर नदी लजा कर बड़ी सहजता से बोली,
मेरी हर बूंद में सिर्फ तुम्हारे लिए समर्पण का भाव है ,
तुमने ये क्यों नही सोंचा कि कितनी विघ्न बाधाओं को,
तोड़कर सिर्फ तुमसे मिलने आई हूँ ।
मेरी हर बूंद में समर्पण की मिठास है जिसे तुम्हारा खारापन कभी समझ नही पाया,
मैं तो सिर्फ तुमसे ही मिलने आती हूँ,अपना अस्तित्व खोकर तुम जैसी हो जाती हूँ।
तभी समन्दर से एक मचलती सी लहर आई,समन्दर ने उसे खुशी से अपने आगोश में ले लिया।
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Jabardast kahani