रचनाकार : सुशीला तिवारी, पश्चिम गांव,रायबरेली
सुबह उठते ही मुझे कुछ बेचैनी सी हो रही थी, क्यों कि आज मुझे दवा लेने हर हाल में साढे सात तक लखनऊ पहुँचना था
जल्दी -जल्दी नाश्ता करके तैयार होकर निकल पड़ी।
मेरे गाँव से रोड जहाँ से बस मिलती थी ,वो एक किलोमीटर दूर था ,सो मैं पैदल ही चल पड़ी, अभी कुछ ही दूर गई थी , कि अचानक से एक अजनबी युवा मेरे बराबर आकर कहने लगा चौराहे पर जाना है आपको ,
आइये मैं उधर ही जा रहा हूँ ।
वैसे तो मैं कभी किसी जान का हो या अनजान मैं जाना नही पसंद करती,,,,पर जल्दी के कारण बैठ गई।
जाते ही बस मिल गई ,और लखनऊ सही समय पर पहुँच गई ,चार बाग स्टेशन पर से मुझे आटो पकड़कर जाना था
सो मैं गई , रकाबगंज उतरकर फिर कुछ दूर लम्बे – लम्बे पग रखते हुए आगे बढ़ रही थी ।और पहुंच भी गई अस्पताल तक
पर डाक्टर साहब बन्द करने जा रहे थे,
चूँकि वो सरकारी डाक्टर थे आठ तक चले जाते थे,
मुझे देख कर रूक गये और कहा आइये आपको देख लेते है,
वो हमे पहचान गये क्यों कि हम कई बार जा चुके थे,
जानते थे कि दूर से आते हैं, आखिर मानवता भी कोई चीज होती है।
मेरे गले में दिक्कत थी देख कर दवा लिख दिया और चले गए।
मैंने बगल के मेडिकल स्टोर से दवा ली और बैठ गई थोड़ी देर के लिए
जल्दबाजी के कारण मेरी सांसे बेकाबू हो गई थी, थोड़ी राहत मिल गई
अपने आप को शान्त किया फिर चल पड़ी घर जाने के लिए
स्टेशन की तरफ,,,,,,,,,
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अब रकाबगंज से आटो पकड़कर चार बाग स्टेशन आ गई जहां से घर के लिए बस मिलती थी,
इधर- उधर घूम कर देख ही रही थी , कि कौन सी बस जा रही है बछरावां के लिए ,
फिर वही युवा जो सुबह आते समय चौराहे तक छोडा था
मेरे सामने खड़ा हो गया
कहने लगा घर जाओगी,,,,,
मैं अवाक सी उसे देखती रही और सोंचने लगी आखिर ये अजनबी कौन है?
उसने मेरी तन्द्रा को भंग किया,
कहने लगा आइये ये बस जा रही है मैं भी जा रहा हूँ, न चाहते हुए भी मैं उसके कहने पर उसी बस में बैठ गई।
कुछ देर बाद एक अधेड़ उम्र के आदमी को साथ लेकर बस के अंदर आकर बैठ गया, और बस चल पड़ी
उसने टिकट भी ले लिया मेरा,
आहिस्ता ‘आहिस्ता बस गंतव्य की ओर बढ़ रही थी ।
उसने मुझे पानी की बोतल दिखाते हुए कहा पानी पियोगी,
प्यास लगने के बावजूद भी मैने ना में सिर हिलाया,
अब उसने एक पत्रिका थमा दी कहने लगा पढ़िये अच्छी है
मैं बैचैनी के कारण पन्ने उलट पुलट कर पढ़ने का दिखावा करने लगी।
कुछ ही देर में बस जहां उतरना था पहुँच गई, हम भी उतरे वो भी उतर गया।
मैने टिकट के पैसे निकाले और देने लगी, उसने नही लिया
तब मैने पूंछ लिया आखिर क्यों नहीं लोगे पैसे?
तब उसने कहा ये मेरे चाचू है मुम्बई से आये हैं मैं इन्हे लेने लखनऊ आया था सुबह आपको पैदल जाते देखा तो चौराहे तक
छोड़ा ,आपको यहाँ देखा तो मेने सोंचा गांव जा रही हो मेरे मामू आपके गांव के है मैं वहाँ गया था ।
और वो मुस्लिम था पर बड़ा नेक दिल इन्सान
उसके व्यवहार से मुझे बहुत शान्ति मिली, ऐसे भी नेक इन्सान होते हैं ।
वहीं से वो अपने घर चला गया । मैंने उसका नाम नहीं पूंछा था।
वो मेरे लिए आज भी अजनबी है।
( समाप्त । कहानी सत्य घटना पर आधारित)