( विशेष संदर्भ : दक्षिण कोरिया )
रचनाकार: दिविक रमेश, नोएडा
कोरिया के तीन प्रसिद्ध राज्यों के साथ-साथ चौथे राज्य के रूप में गाया राज्य पर भी पुस्तकें मिलती हैं।एक पुस्तक है प्रोफेसर छुन हॉन लिखित ‘शनबी वांगुगुक गाया’। संक्षेप में कहानी यूं है। बात पहली शताब्दी की है। सन 42 की। अयोध्या के राजा और रानी सपने में भगवान देखते हैं जो कहते हैं कि उन्होंने करक के राजा के रूप में किम सूरो को धरती पर भेजा है जो अविवाहित है। उसी के साथ अपनी 16 वर्षीय राजकुमारी का विवाह करा दो। राजा बेटी को रक्षकों और सामान के साथ किम सूरो के राज्य के लिए जलमार्ग से प्रस्थान करता है। राजकुमारी समुद्र को पार कर तभी जा पाती है जब वह बुद्ध की प्रतिमा साथ ले जाती है। किनारे पहुंचने पर उसे लिवा ले जाने के लिए राजा के आदमी होते हैं जिनके साथ जाने से वह स्वाभिमानी भारतीय नारी मना कर देती है। राजा को तब स्वयं आना पड़ता है। उनका विवाह होता है और उन्हें संतानें प्राप्त होती है। कोरिया में पत्नी भले ही अपने मायके का पारिवारिक नाम ही धारण किए रहती है लेकिन संतान पिता का पारिवारिक नाम धारण करती है। लेकिन अपवाद स्वरूप इनकी संतान को मां का पारिवारिक नाम धारण करने की भी छूट मिली। दक्षिण कोरिया के बूसान शहर के पास किमहे में राजा और उसकी भारतीय पत्नी की भव्य समाधियां हैं और बाहर मंदिर है जिसमें वही पत्थर है जो भारत से बुद्ध की प्रतिमा के रूप में राजकुमारी लायी थी। यह पत्थर कोरिया में नहीं मिलता, ऐसी मान्यता है।
कोरिया और भारत को मजबूती से जोड़ने वाले दो प्रमुख सूत्रों में एक है बौद्ध धर्म और दूसरा है अयोध्या की राजकुमारी का कोरियाई राजा से विवाह। सब जानते हैं कि बौद्ध धर्म चीन से कोरिया होते हुए जापान गया था। बौद्ध धर्म की वैचारिकी ने कोरियाई साहित्य को भी प्रभावित किया है।
बौद्ध धर्म की कोरिया में महत्त्वपूर्ण उपस्थिति की बात सर्वस्वीकृत है। दक्षिण कोरिया के प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर ‘हे इन सा’ में आज भी कोरियन त्रिपिटिका अर्थात बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटिका का कोरियाई अनुवाद सुरक्षित रखा हुआ है। कोरियन त्रिपिटका का उत्कीर्ण कोरियो राज (918-1392) में दो बार हुआ था। राजा और लोगों का विश्वास था कि उसकी मौजूदगी से कोई भी आक्रमण पीछे धकेला जा सकता है और सौभाग्य बना रह सकता है। पहली बार उत्कीर्ण का कार्य 1087 में पूरा हुआ। लेकिन दुर्भाग्य से 1232 में, मंगोलों के आक्रमण में त्रिपिटका जल गई। इसके बाद 1236 में पुनः कार्य शुरू हुआ – तत्कालीन राजा गो जोंग के हुक्म से। लगभग 16 वर्षों के बाद 1251 में वर्तमान त्रिपिटका का कार्य सिद्ध हो सका। पहले इसे सोल शहर के पश्चिम में कांगहवा दो नामक द्वीप में रखा गया और बाद में 1398 में हे इन सा में लाया गया।
मैं हंकुक यूनिवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज, सियोल में विजिटिंग प्रोफेसर (हिंदी) के रूप में विदेशी असाइनमेंट (आईसीसीआर) पर तीन साल तक कोरिया में रहने के दौरान टैगोर से जुड़े अपने सबसे अनूठे अनुभवों में से एक का परिचय देना चाहता हूं। मैं अपने एक कोरियाई छात्र के साथ कहीं जा रहा था तभी एक लड़का हमारे करीब आया और उसने छात्र से कोरियाई भाषा में कुछ पूछा और जवाब मिलने के बाद उसने कविता जैसा कुछ सुनाया और स्वागत योग्य मुस्कान के साथ चला गया।
क्रमश:
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