रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
चैप्टर-1
कहानी सुनाने की नि:संदेह एक प्राचीन परम्परा है जो कदाचित धरती पर मनुष्यता के प्रारम्भ से ही मानी जा सकती है लेकिन यह बताना कठिन है कि इसका उद्भव कैसे हुआ। उद्भव के बारे में जो मत मिलते हैं वे इतिहास सम्मत न होकर अनुमान आधारित ही कहे जाएँगे। एक अनुमान के अनुसार आदिमानव सहज भाव से गा उठा होगा और लोकगाथा या कहानी का जन्म हो गया होगा। विद्वानों के अनुसार लोकगाथाओं की उत्पत्ति के अनेक कारण बताए गए हैं, जिनमें समुदायवाद् (ग्रिम), व्यक्तिवाद (श्लेगल), जातिवाद( स्टेंथल), चारणवाद (विशप पर्सी), व्यक्तिहीन-व्यक्तिवाद (चाइल्ड) और समन्वयवाद (डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय) प्रमुख हैं।
इनके बारे में विस्तार से जानने के लिए डॉ. स्वामी प्यारी कौड़ा का सत्यम पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली से प्रकाशित ग्रंध ‘हिन्दी नाटक और रंगमंच में लोकतत्व’ का अध्ययन किया जा सकता है। इस संदर्भ में ओमप्रकाश कश्यप के लेख ‘किस्सागोई की कला और बालसाहित्य” से भी एक अंश उद्धृत करना चाहूँगा- “सभ्यता के आरंभिक दौर में जब मनुष्य ने किसी अनोखी वस्तु, प्राणी या घटना के बारे में कुछ बढ़ा-चढ़ाकर, कतिपय रोचक अंदाज में और लोकरंजन की वांछा के साथ बयान करने की कोशिश की होगी; तो स्वाभाविक रूप में बाकी लोगों में उसके कहन के प्रति ललक पैदा हुई होगी। परिणामतः उन अनुभवों के प्रति सामूहिक जिज्ञासा तथा उनको रोचक अंदाज में, बार-बार सुने-कहे जाने की परंपरा का विकास हुआ। उसमें कल्पना का अनुपात भी उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया. इसी से लोकसाहित्य और किस्सागोई की कला का विकास हुआ।.
मां की लोरी के साथ-साथ…जब बालक शब्दों का अर्थ पहचानना शुरू करता है, शायद तभी से. किस्सागोई को लेकर बचपन से शुरू हुआ सम्मोहन ताजिंदगी कम नहीं होता. इसमें कल्पना का माधुर्य भरा होता है। ऐसा लालित्य समाहित होता जिसमें आखर बोलने लगते हैं. शब्दों को जुबान मिल जाती है. अर्थ स्वयं मुखर हो उठते हैं. काल्पनिक होने के बावजूद उसका वर्णन इतना प्रामाणिक, रसमय और जीवंत होता है कि श्रोता उसके प्रवाह में बहे चले जाते हैं। लेखन के संदर्भ में यह एक विशिष्ट शैली है. जिसमें कथाकार अपने पाठक के साथ संबोधन की स्थिति में होता है। लिखने के बजाए वह कहानी को कहता है।“
यहाँ मैं डॉ. रामयज्ञ मौर्य के लेख ‘किस्सागोई के आवश्यक तत्व एवं उनकी प्रवृत्ति’ से भी कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूँगा, “ हिंदी कहानी का किस्सागोई रूप बहुत पहले से प्रचलित है। …कीसा, किस्सा, कहनी अथवा गल्प की मौखिक परम्परा से प्रारम्भ होकर मुद्रणकाल में कहानी ने व्यापक और विविध रूप प्राप्त किए। …क्योंकि किस्सागोई मूल रूप से लोक कथाओं से संदर्भित है अत: लोक जीवन से जुड़े अतिरंजना, कल्पना, कौतूहल, जिज्ञासा, साहसिकता, आकस्मिकता, मार्मिकता, संवेदनात्मकता, मनोरंजकता, वाचिकता, नाटकीयता, वर्णनात्मकता आदि कुछेक ऐसे अनिवार्य तत्व हैं जो किस्सागोई शैली की कहानियों के सृजन के लिए आवश्यक हैं।“
जब हम कहानी सुनाने की बात करते हैं तो उसमें कहानी या कथा सुनने का भाव भी निहित रहता है। सुनाने के लिए जब किस्सागो या कथावाचक तैयार होता है तो उसकी तैयारी में हमेशा सुनने वाला और उसकी अनुमानित अपेक्षाएँ भी निहित रहती हैं। इसे हमें भारतीय श्रुति परम्परा के माध्यम से बेहतर समझ सकते हैं। श्रुति का अर्थ है सुना हुआ जिसके अंतर्गत सर्वोपरि धर्मग्रंथों का समूह माना जाता है।
एक विचार के अनुसार ऋषियों के द्वारा प्राचीन काल में ईश्वर की वाणी सुनी गई थी। सुनी हुई वाणी को शिष्यों के द्वारा सुना गया और दुनिया में सुनाने के माध्यम से फैलाया गया। श्रुति के साथ स्मृति ग्रंथों की भी बात चलती है। ये ग्रंथ मनुष्यों की स्मरण शक्ति और बुद्धि के द्वारा माने गए हैं न की श्रुति की तरह ईश्वरीय। इसीलिए श्रुति का महत्व ऊपर माना जाता है।
(क्रमशः )
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रचनाकार का परिचय
हिंदी के सुप्रतिष्ठित कवि, बाल-साहित्यकार, अनुवादक और चिंतक हैं जिनका जन्म 1946 में गांव किराड़ी (दिल्ली) में हुआ था। संपूर्ण शिक्षा दिल्ली में ही।
इनका महत्त्वपूर्ण लेखन 20वीं शताब्दी के 8वें दशक में उभर कर आया था। बहुमुखी प्रतिभा के धनी दिविक रमेश की विविध विधाओं में लगभग 85 पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें 12 कविता-संग्रह, काव्य-नाटक ‘खण्ड-खण्ड अग्नि’, बालसाहित्य (कविता, कहानी, नाटक, संस्मरण) की लगभत 50 पुस्तकें और आलोचना-शोध की 8 पुस्तकें और अनेक संपादित और अनूदित पुस्तकें सम्मिलित है।
इनकी रचनाएं स्कूल से लेकर देश-विदेश के विश्वविद्यालयों के पाठयक्रमों में सम्मिलित हैं। साहित्य अकादेमी का बाल-साहित्य पुरस्कार(1918), सोवियत लेंड नेहरू पुरस्कार, गिरिजा कुमार स्मृति राष्ट्रीय पुरस्कार, हिंदी अकादमी, दिल्ली का साहित्यकार सम्मान, कोरियाई दूतावास का प्रशंसा-पत्र, एन.सी.ई.आर.टी का राष्ट्रीय बाल-साहित्य पुरस्कार, उ.प्र.हिंदी संस्थान का बाल भारती पुरस्कार आदि राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार-सम्मानों से सम्मानित हैं।
आई.सी.सी.आर.(भारत सरकार) की ओर से दक्षिण कोरिया के हांगुक विश्विद्यालय में अतिथि आचार्य के पद पर काम कर चुके हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के मोतीलाल नेहरू माहाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत हुए हैं।