रचनाकार : दिविक रमेश, नोएडा
आखिरी चैप्टर
’हान’ की सामान्य धारणा एक बार बार आने वाली और व्यापक उदासी सुझाती है। असल में यह सुखांत से अलग है।
वैविध्यपूर्ण होते हुए भी, भारतीय और विदेशों की इस वाचिक परम्परा में बहुत सी समानताएँ भी हमें आकर्षित कर सकती हैं।भारत की पंडवानी हो या कोरिया की पंसोरी दोनों के ही कथावाचक के हाथ में कुछ न कुछ होता है और दोनों ही नाटकीयता से भी काम लेते हैं। वस्तुत: श्रोताओं तक को अपनी बात को पूरे मनोरंजन के साथ संप्रेषित करना इनका मुख्य लक्ष्य होता है। कहानी कहने या सुनाने की भी एक कला होती है। कवि रघुवीर सहाय तो प्रकाशित कविता की प्रस्तुति की कलात्मकाता पर भी बहुत जोर दिया करते थे।
मैं मानता हूँ कि लोकसाहित्य के एक प्रमुख अंग के रूप में सुनो और सुनाओ कहानी परम्परा को हम लोकभाषा और लोक संस्कृति की सहज या टटकी शरण स्थली के रूप में भी स्वीकार कर सकते हैं। इनके माध्यम से हम लोक के मूल स्वरूप और उसकी सोच को पहचान सकते हैं। लोक के साथ शास्त्र की चर्चा बहुत हुई है। बहुत बार दोनों को आमने-सामने लड़ाने की मुद्रा में भी खड़ा किया जाता है। लेकिन, अंतत: यह तो विद्वानों ने माना ही है कि लोक के विरुद्ध शास्त्र को भी नहीं होना चाहिए। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार,’ यह एक प्रकार से मानी हुई बात है कि जो कार्य शास्त्र से शुद्ध हो, किंतु लोक के विरुद्ध हो, उसे नहीं करना चाहिए। इसी को ‘चलन’ कहा गया है।‘ ( साहित्य अमृत, लोक-संस्कृति विशेषांक, 4/19, आसफ अली रोड, नई दिल्ली-110001, अगस्त 2017, पृ. 12) ।
लोकसाहित्य के एक सशक्त अंग के रूप में सुनो कहानी की परम्परा के बहाने लोकसाहित्य, लोक संस्कृति और जनस्वीकृति के अंतर्संबंधों पर भी विचार कर लेना चाहिए। थोड़ा अन्य अंगों को खंगालते हुए।
लोक-साहित्य, लोक-संस्कृति, लोकप्रियता, लोकमंगल आदि एक-दूसरे से पूरी तरह गुंथे हुए शब्दार्थ हैं। लोकप्रियता को यूं आज ‘सस्ती’अथवा ‘गम्भीर’विशेषणों की तराजू पर भी देखने की जरूरत रहती है। लोक-संस्कृति का बहुत महत्त्व रहा है। उससे जुड़ा साहित्य भी लोक-समाज में बहुत प्रचलित और प्रतिष्ठित रहा है। लेकिन एक बात की ओर विशेष ध्यान जाना चाहिए कि लोक-साहित्य हो अथवा लोक-संस्कृति का कोई अन्य आयाम, लोक-स्वीकृति की बुनियाद पर स्थिर होकर ही उसने प्रतिष्ठा पायी है।
जनश्रुति या जनस्वीकृति के बिना लोक-साहित्य या लोक-संस्कृति का अस्तित्व संभव नहीं रहा। अत: लोक तथा लोक-संस्कृति की एक परम्परा भी होती है।इसीलिए मैंने केवल सुनओ कहाँई नहीं बल्कि सुनो और सुनाओ कहानी पर अपनी बात करनी चाही है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्डम के प्रथम सर्ग से एक उदाहरण लेकर इस तथ्य को समझा जा सकता है। नारद ने तपस्वी वाल्मीकि से पूछा कि इस समय संसार में गुणवान,वीर्यवान, धर्मज्ञ, उपकार माननेवाला, सत्यवक्ता और दृढ़प्रतिज्ञ कौन है तो उत्तर मिला –
इक्ष्वाकुवंशप्रभावो रामो नाम जनै: श्रुत:।
नित्यात्मा महावीर्यो द्युतिमान धृतिमान वशी ॥8॥
अर्थात इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए एक ऐसे पुरुष हैं, जो लोगों में रामनाम से विख्यात हैं, वे ही मन को वश में रखने वाले, महाबलवान, कांतिमान, धैर्यवान और जितेंद्रिय हैं। यहां राजमहल में रहने वाला न कह कर ‘जनै: श्रुत:’अथवा लोक में विख्यात अर्थात लोक के द्वारा जाना और स्वीकृत कहा गया है। कहना न होगा कि लोक में जाना जाने तथा लोक के द्वारा स्वीकृति के लिए कुछ गुण होने चाहिए और वही लोक-संस्कृति है। किसी भी समाज का लोक-साहित्य उसकी लोक-संस्कृति का ही वाहक होता है। लोक-साहित्य अपनी लोक-संस्कृति से एक दृष्टि भी लेता है।