रचनाकार : उत्तम कुमार तिवारी ” उत्तम ” , लखनऊ
लिख दूँ शब्द सुनहरे
लिख दूँ तेरे अंक मे
शब्द सुनहरे प्यार के
भावो की श्याही बना कर
लिख दूँ दिल के कागज पे ।।
शब्द मेरे अनमोल बहुत
उन बीते यादो लम्हो के
जो पल गुजारे थे हमने
बैठे पेड़ की छावो मे ।।
हर शब्द शब्द से
श्रंगार किया मैने तेरा
बिखरे तेरे केशो को
लिख दिया घनघोर घटा का घेरा ।।
माथे की तेरी बिदिया को
सूरज से तुलना कर डाली
आँखो के चंचल चितवन को
मृगनैनी की उपमा दे डाली ।।
तेरे गोल कपोल की सुंदरता को
फूल गुलाब सा कह डाला
रक्तिमा लिए हुए तेरे अधरों को
कली फूल की लिख डाला ।।
तेरे मुख मंडल की शोभा को
चंदा से उपमा कर डाला
कटि को तेरी बना सुराही
सुन्दर शब्दो से भर डाला ।।
प्रेम भरे शब्दो की मात्रा है
मेरे लिखे हुए शब्दो मे
भावो की श्याही बना कर
लिख दूँ दिल के कागज मे ।।
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जिंदगी कहां गई
जिंदगी वही की वही रह गई
जहा से शुरु वही ख़तम हो गई
सुबह से अब धीरे धीरे शाम हो गई
रात बीती और अब सुबह हो गई ।।
जिन्दगी आज अब औ कल हो गई
न जाने कहा जिंदगी गुमसुदा हो गई
मिली थी तो हस कर गले से लगाया
न जाने जिंदगी अब कहा खो गई ।।
अरे यार ये तो बता दो हमे
मिले जिंदगी तो दिखा दो हमे
हमे पूछनी है एक बात उससे
क्या से क्या सपने दिखा कर कहा खो गई ।।
तु पाबंद है अपने उसूलो की
आकर उसूलो को बता कर गई
मै खड़ा था भीड़ मे खड़ा ही रहा
तू आई दिखी पर न जाने कहा खो गई ।।
यार ये जिंदगी भी है तमाशे की जैसी
आई और तमाशा दिखा कर गई
मै खड़ा भीड़ मे तमाशा देखता ही रहा
हसी मुस्कराई फिर न जाने कहा को गई ।।
स्वरचित मौलिक रचना सर्वाधिकार सुरक्षित है ।
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हां मै चित्रकार हूँ
मै चित्रकार हूँ चित्र बनता हूँ
कुछ हसते कुछ रोते कुछ गाते
कुछ ऐसे चित्र बनता हूँ
जिसमे भाव बहुत पर शब्द नही
लेकिन चित्र बहुत कुछ कहते है ।।
माँ की ममता का चित्र बनाया
तो आँखो से आंसू निकल पड़े
ये माँ ही है ऐसी दुनिया मे
जिसके बलबूते हम खड़े हुए ।।
पिता की मेहनत का चित्र बनता था
तो हाथ मेरे कापने लगे थे
किन रंगो से रंग दूँ उसको
पिता की मेहनत के आगे
सारे रंग मुझको फीके लगते थे ।।
कुछ चित्र बनाये थे ऐसे
जिसमे पिया के रंग मे वो डूबी थी
होंठ गुलाबी हाथ मे मेंहदी
बाहो मे उसके लेटी थी ।।
ये चित्र कला भी कविता जैसी
चित्र भाव से कहता है
चित्रकार भी अपनी कविता
चित्रों के द्वारा कहता है ।।