चैप्टर—1
वे आ गए! वे आ गए! परफ्यूम छिड़को! डिओ की बोटल खोलो!
ये आवाजें सुनकर आपने क्या सोचा? क्या किसी वीआईपी की स्वागत की तैयारियां हो रही हैं?
नहीं, नहीं! आप गलत समझे! आधी—अधूरी बातें सुनकर कोई नतीजा नहीं निकालना चाहिए!
अब इन आवाजों पर ध्यान दीजिए —
नाक पर रूमाल रखो, नहीं तो बेहोश होने का खतरा है!
क्या कुछ समझ में आया? क्या कोई बदबूदार प्राणी आने वाला है?
दरअसल रोज—रोज ऐसी आवाजें दिन में कोई 2 बजे उठापटक कंपनी के आफिस में हर रोज आने लगती थीं। ये आवाजें आती थीं एक सज्जन के ड्यूटी आते वक्त! आफिस में उनके घुसते ही चारों ओर हड़कंप मच जाता था और ऐसा होना स्वाभाविक ही था। क्योंकि जो महाशय आफिस में आते थे वे पसीने से तर रहते थे! लगभग हांफते रहते थे। माथे और चेहरे पर पसीना छलछलाता रहता था। शर्ट और पैंट दोनों ही कई दिनों तक धुलते नहीं थे। उन पर जगह—जगह सफेद—सफेद चकत्ते बनते रहते थे। न ही कपड़ों पर प्रेस रहती थी और न ही बालों पर कंघी! यह हुलिया रहता था हमारे जिगरी दोस्त जी रंगा बाबू का! उन्होंने एक महीने पहले ही यह कंपनी जॉइन की थी और इतने ही कम समय में अपने मैले—कुचैले रहने की आदत के कारण पूरे आफिस में कुख्यात हो गए थे!
उनको कोई अघोरी कहता था। तो कोई कुंभकर्ण का रिश्तेदार! जितने भी लोग उनसे मिलते वे नाक पर रूमाल रखकर और दाएं—बाएं देखते हुए उनसे मिलते थें। क्या करें उनके बदन से आती बदबू किसी को भी बर्दाश्त नहीं होती थी।
तो जी रंगा बाबू थे बहुत मेहनती और दिलचस्प! उनके बदन से आती बदबू को लेकर भांति—भांति किस्से प्रचलित थे। कोई कहता था कि साहब इतने बिजी रहते हैं कि काम के सिवा उन्हें कुछ नहीं सूझता! वे काम में ऐसे रम जाते हैं कि बदन से कैसी बदबू आने लग गई है, इस बात की सुध—बुध भूल जाते हैं। हमारे एक सहयोगी ने तो उनके बारे में यह फैला रखा था कि रंगा बाबू जी, केवल खाने—पीने के शौकीन हैं। उन्हें खाने पर खर्च करना पसंद है, साबुन पर नहीं! एक अन्य सहयोगी राजन भट्टाचार्य जी कहते थे कि ये जॉरूर रोज चिंगडी माछ खाता होगा। तोभी तो गोभी जैसा महकोता है!
हमारे पड़ोस में बैठने वाली सुकृति को उनकी बुद्धि में विकृति नजर आती थी। वह कहती थी— पता नहीं! रंगा बाबू ऐसा क्यों करते हैं। मैंने सुना था कि बचपन में वे खाट से गिर गए थे जिससे उनकी टांट पर चोट लगी और वे अक्ल से पैदल हो गए। उन्हें कोई सुधबुध नहीं रहती कि आज मंगल है या बुधवार! बस देर रात को घर जाकर बिस्तर में घुस जाते हैं और काम के कारण इतनी थकान हो जाती है कि अपना होश खो बैठते हैं और सीधे अगले दिन ऐन आफिस खुलने के टाइम पर उनकी तंद्रा खुलती है और बस वही कपड़े फिर से पहनकर आ जाते हैं। अब जिसे बदबू आती है आती रहे, उन्हें कोई परवाह नहीं रहती।
मैंने कहा — ये रंगा बाबू वैसे तो बहुत मस्त हैं। चेहरा—मोहरा भी अच्छा है पर उनकी इस मैले—कुचैले रहने की आदत से मुझे ऐसा लगता है कि इन्हें जल्द ही शादी कर लेनी चाहिए। ताकि बीबी इन्हें सुधार सके और कम से कम आफिस तो सही और धुले—धुलाए कपड़ों में इस्त्री कराकर आ सकें।
भट्टाचार्य — होमको लोगता है कि कुछ उपाय कोरोना होगा। या तो इनके लिए स्त्री खोजना होगा अथोवा कोपड़ों को धुलवाने का खोर्चा देना होगा।
सुकृति — कोरोना वगैरह के गए जमाने! अब तो मुझे फिकर इस बात की है कि इस महीने मेरे डिओ का खर्चा कितना आएगा। जब इन महाशय के आने का ऐलान होता है मैं पूरे 100 एमएम का डिओ आसपास छिड़ककर बैठ जाती हूं ताकि नाक में उनकी बदबू कम से कम जाए!
क्रमश:
(काल्पनिक रचना )