रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर
सावन की झड़ी लगी हुई थी। रुक रुक कर बरस रही थी। सभी के परिवारों में एक उत्साह दिखाई देता था। लहरिया पहने परिवारों की महिलाएँ सजी संवरी इधर उधर घूम रही थी, आपस में बतिया रही थी। बच्चों में भी नये नये वस्त्र पहनकर तीज के मेले में जाने का उल्लास साफ झलक रहा था।
“हम तो झूला झूलेंगे वहाँ!” स्याली बोली।
“मैं वहाँ से खिलौने वाला हवाई जहाज लूँगा!” स्याली के पडौस में रहने वाला नितिन बोला।
“तू क्या लेगा वहाँ? ” स्याली ने पास खड़े जतिन से पूछा जो सबको देखते हुए चुपचाप खड़ा था।
“बोल न! ” स्याली ने फिर पूछा तो बोला, “कुछ नहीं! “
“क्यों? क्या तेरे पास पैसे नहीं हैं?”
“नहीं हैं! ” स्याली चुप हो गई फिर कुछ सोच कर बोली – ” अच्छा, ये बता कि तेरे पास पैसे होते तो तू क्या लेता? “
“चाबी वाला घोड़ा! ” जतिन सिर झुकाए हुए ही बोला।
“वो तो शायद मँहगा होगा! ”
“पता नहीं! ” स्याली के बात पर जतिन बोला।
“अच्छा, साथ तो चलेगा न? ” स्याली ने पूछा।
“माँ से पूछकर बताऊँगा! “
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मोहल्ले के आस पड़ोस के दो चार बच्चे अपनी माँ, चाची, मामी, दीदी आदि के साथ मेले की ओर चल दिये। गाँव के प्रधान की इकलौती हवेली के लंबे चौड़े प्रांगण में बड़ के वर्षों पुराने पेड़ की चारों ओर फैली मजबूत शाखाओं पर आधे दर्जन झूलों पर गाँव की कुछ युवतियां झूले की ऊँची ऊँची पेंगें ले रही थी तो कुछ उनके झूलों को धक्का दे देकर झुला रही थी। हवेली के रास्ते पर सदर दरवाजे तक बहुत सी दुकानें लगी हुई थी जिनमें महिलाओं की प्रसाधन सामग्री चमक रही थी और बच्चों के खिलौनों की दुकानें सजी हुई थी। दुकानों पर महिलाओं और बच्चों की भीड़ जमी हुई थी। अधिकतर महिलाएं लहरिया पहने थी और कुछ महिलाएं पास में बने शिव मन्दिर की ओर जल चढ़ाने जा रही थी। हवेली के एक तरफ मैदान में मैरी-गो-राउंड और चक्करदार झूले लगे थे, वहीं खाने पीने की चीजों की दुकानें सजी हुई थी जिनपर भी भीड़ लगी हुई थी।
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स्याली के साथ नितिन और जतिन ने खूब झूला झूला। स्याली की माँ ने स्याली के संग आये उसके दोनों मित्रों को मिठाई खिलाई। नितिन ने अपने लिए हवाई जहाज खरीदा। स्याली ने भी सुन्दर सी गुड़िया खरीद ली। जतिन कुछ नहीं खरीद रहा था। अचानक स्याली उसका हाथ पकड़ कर खिलौने वाले की दुकान पर ले गई और चाबी वाले घोड़े का मूल्य पूछा। दुकान वाले ने घोड़ा दिखाते हुए कहा – “पच्चीस रुपये।”
स्याली ने अपने बैग से एक रेजगारी की थैली निकाली और दुकान वाले से बोली – “लो, गिन लो! ” दुकानदार ने पास ही बैठे अपने बेटे को थैली थमाते हुए गिनने को कहा। चालीस रुपये निकले। उसमें से पच्चीस निकालकर दुकानदार ने थैली स्याली को वापस कर दी और चाबी वाला घोड़ा उसे दे दिया।
“अरे, तू कहाँ गायब हो गई थी?” स्याली की माँ ने स्याली से पूछा।
“यहीं तो थी। जतिन ने ये घोड़ा खरीदा है माँ!”
“ओह, बड़ा सुन्दर घोड़ा है। चलो, खूब मस्ती हो गई अब घर चलते हैं।” स्याली की माँ बोली और दोनों माँ के पीछे पीछे हो लिए।
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स्याली ने जो गुल्लक में बचा रखे थे, उन्हीं पैसों में से जतिन के लिए घोड़ा खरीद दिया था।
जतिन घोड़ा लेकर जब माँ के पास पहुँचा तो माँ ने प्रश्न किया – “ये कहाँ से लाया? “
“स्याली ने दिलाया। ” जतिन ने बताया।
“तू ने मुझसे पैसे क्यों नहीं माँगे?” माँ ने तमक कर कहा।
“माँ, इस बार तूने लहरिया साड़ी खरीदकर नहीं पहनी है इसलिए मैंने सोचा कि तेरे पास पैसे नहीं होंगे।”
माँ ने अचानक जतिन को गले से लगा लिया। उसके आँसू बह चले थे। उसका हृदय कह रहा था कि जतिन ठीक ही तो कह रहा है।
(काल्पनिक रचना )