आखिरी चैप्टर
मुकुंदी लाल — बाबूजी!रंग में भंग मत डालो! मैंने सब सोच रखा है। जब मेरी शादी हो जाएगी तो लक्ष्मी के रूप में बहू वैसे ही आ जाएगी। फिर जब घर में साक्षात लक्ष्मी आ जाएगी तो हमें रुपये—पैसे की कमी कैसे होगी? दस—बीस लाख रुपये दहेज में मांग लेंगे! न मुझे कुछ करना होगा, और न आपको! सच बड़ी सुकून भरी जिंदगी हो जाएगी।
बसंती लाल — जो भी करना सोच—समझकर करना! बेटा, मेरा अनुभव यह है कि शादी करते समय हसबैंड बनने में भले ही कुछ देर सुख मिल जाए पर बाद में तो उसका बैंड ही बजता रहता है। मैं गांव के पंडितजी बनफूल तिवारी को बुलाकर तुम्हारे लिए लड़की की खोज कराता हूं।
इस वार्तालाप के बाद मुकुंदी लाल मन के लड्डू खाते हुए खटिया पर जाकर पसर गए।
अब जिन पंडित जी से बसंती लाल अपने (हो न हार) बेटे के लिए वधू ढुंढ़वाना चाह रहे थे वे भले ही नाम से बन फूल थे पर खुद फूल बनने के बजाय उन्हें दूसरों को फूल बनाने में ज्यादा मजा आता था।
बनफूल ने अपनी अंत: दृष्टि को पता लगा लिया कि दहेज के लालच में इस विवाह को कराने की तैयारी हो रही है तो उन्होंने अपना दांव खेलने और लाल खानदान के गाल शर्म से लाल करने का बीड़ा मन ही मन उठा लिया।
बनफूल ने मल्हार गांव की एक सुंदर सी लड़की मिरची कुमारी की फोटो लाकर लाल खानदान को दिखाई तो बसंती की पत्नी चिरौंजी तक उस पर लट्टू हो गईं। वे बनफूल की बलैयां लेने लगीं और जब उस कन्या से विवाह के प्रस्ताव पर पूरे लाल खानदान ने मोहर लगा दी तो मुकुंदी लाल का बैंड बजना तय हो गया।
तय समय पर शुभ मुहूर्त के अनुरूप मुकुंदी लाल और मिरची कुमारी के फेरे पड़ने शुरू हुए। इसी बीच, किसी ने शरारत की या दैव योग से लाइट चली गई और विवाह स्थल अंधेरे में ही डूब गया। मुकुंदी लाल और मिरची कुमारी ने हवन—कुंड की जलती मद्धिम लौ के साथ सात फेरे डगमगाते कदमों से लिए। इस मौके पर बरातियों क्या घरातियों ने जमकर दावत उड़ाई।
जब पौ फटने से पहले फेरे—वेरे पड़ गए, जयमाला—वयमाला हो गई तो मुकुंदी लाल ने उनींदी आंखों से देखा कि उनकी नवविवाहिता पत्नी लंगड़ा—लंगड़ा कर चल रही है। उन्होंने पूछा— क्या हुआ? मेरी प्यारी मिरची! तुम ऐसे क्यों चल रही हो?
मिरची ने बड़े ही नरम स्वर में जवाब दिया — कुछ नहीं जी! वो मेरा बायां नकली पैर धोती में फंस रहा था।
हैं? क्या? नकली पैर? क्या मिरची कुमारी की एक टांग नकली है? हे भगवान! टूटे पैर वाली लक्ष्मी!!!!! ये सब बातें सोचकर मुकुंदी लाल को गश आने लगा।
तब मुकुंदी लाल को उनके माता—पिता ने संभाला। उसे एक गिलास ठंडा पानी पिलाया। जब मुकुंदी लाल की हालत कुछ संभली तो बसंती लाल बोले — बेटा! यह एक टांग वाली लक्ष्मी है! बुरा हो पंडित जी का जो उन्होंने केवल फोटो दिखाकर हमारी शादी के लिए रजामंदी ले ली!
मुकुंदी की मां भी बेहद लाल—पीली हुईं। पर अब क्या हो सकता था? सात फेरे तो पड़ ही चुके थे। जिसकी किस्मत में जो था, वह मिल गया था। यही सब सोचकर मुकुंदी बोले — मां, बाबूजी! जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ! मेरी मिरची की भले ही एक टांग नकली है पर यह भी तो सोचो कि ऐसी लक्ष्मी अपने घर के सिवा कहीं नही जा पाएगी! लक्ष्मी स्वरूपा यह देवी हमारे घर पर ही सदा रहेगी। हम उसे बेहतर जिंदगी देंगे और मैं पूरी मेहनत और लगन से सब काम—काज संभाल लूंगा। यह मिरची तो मुझे भा गई है!
यह सुनकर सबके चेहरे खिल उठे और वे पंडित बनफूल की बुद्धिमानी की दाद देने लगे।
(काल्पनिक कहानी)