रचनाकार : सुशीला तिवारी, पश्चिम गांव, रायबरेली
मिट्टी की महक
कितनी पावन महक आ रही मेरे गाँव की मिट्टी की ।
भीनी – भीनी खुशबु आती हर गली मुहल्ले बस्ती की ।।
प्यारा है परिवेश यहाँ का चहुं दिशि फैली हरियाली ,
मोर नाचते खेतों के बिच ,कोयल बोल रही हर डाली ,
ऋतु बसंती जब आती प्रकृति में फूले सरसो पीली ,
मस्त चले पुरवाईया लरजे , हुई सभी दिशाएं नशीली ।
घर के आंगन में खेले मिट्टी के संग नन्हे मुन्ने बालक ,
बड़े मगन खुश हो देख रहे , जो हैं उनके प्रतिपालक ।
जीवन गांव की मिट्टी में बीते , कर दें शहर की छुट्टी ।
भीनी -भीनी खुशबू आती, हर गली मुहल्ले बस्ती की ।।
पली “सुशीला” मिट्टी में मिल जाये एक दिन मिट्टी में ,
महक लिखूँगी मिट्टी की फिर मिलेगी जब कभी छुट्टी में।।
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चलो पुराने उसी गांव में
चलो पुराने उसी गांव में ,
पीपल,नीम,आम छांव में,
सूरज शाम ढले।
आ!अब लौट चलें।।
चकाचौंध न भाये शहर की ,
आती याद गाँव नहर की,
भागम-भाग खले।
आ!अब लौट चलें ।।
जीवन युद्ध महाभारत का,
कृष्ण कन्हैया और पार्थ का,
शकुनी दाँव चलें ।
आ!अब लौट चलें ।।
आओ श्रम की थकन मिटाने,
मन को थोड़ा सा बहलाने,
बरगद की छांव चलें।
आ!अब लौट चलें ।।
कठिन परिश्रम से तन झुलसा
मन भी कितनी बार जला
जहाँ बैठ सपने संजोये
चल साथी उस ठाँव चलें।
आ!अब लौट चलें। ।
तपिश न देखी कभी देह की
याद न भूले कभी गेह की,
बूढ़ी आँखे पंथ निहारें,
चल उनके पास चलें ।
आ !अब लौट चलें ।।
कुछ सपने लेकर आँखों में
हमने घर आंगन छोड़ा था
मां का प्यार पिता की आशा
इन सबसे मुंह मोड़ा था ,
अब अपना फर्ज निभाने
वही पुराने गांव चलें।
आ!अब लौट चलें
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प्रश्न उठाया होगा
उसकी खुशहाली पर लोगों ने, प्रश्न उठाया होगा।
तुम क्या जानो उसने कैसे, हंसकर दर्द छुपाया होगा।।
आंखों में आसूं उमड़े पड़े, चेहरे पर उदासी छाई है ,
पर तुम क्या जानो होती कैसी , पीर पराई है ,
जीवन भर की आशा टूटी, कितना नीर बहाया होगा।
तुम क्या जानो उसने कैसे, हंसकर दर्द छुपाया होगा।।
दिल की सौगातें बिखर गई, शर्त प्रेम की टूट गई ,
आस, समर्पण और त्याग ने ,अर्थहीन सी बात कही,
बिछुये टूटे प्रेम पगे जो , कितना शोर मचाया होगा।
तुम क्या जानो उसने कैसे, हंसकर दर्द छुपाया होगा ।
राह मुहब्बत में उसने, कोई जुल्म सितम ढाया होगा ।
उसने भी तड़प कर अपने ,जज्बातों को छुपाया होगा ।।
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बचपन से वृद्धावस्था का सफर
बचपन बीता खेल -खेल में पीहर के घर आंगन में,
युवा हुई ब्याह हुआ ,मिल गया जग तब साजन में ।
पति के साथ विदा हो गई, मैके से फिर जुदा हो गई ,
सास के संग परिवार मिला , सुंदर सपना साकार हुआ।
गृह की लक्ष्मी बन गई अपने, गढने लगी नित नूतन सपने ।
पति का प्यार दुलार मिला ,कितना सुंदर संसार मिला ।
लव कुश सी संताने पाकर, बन गई उनकी नौकर चाकर।
समय को ये रास न आया सर से उठ गया पति का साया।
भेजा बच्चों ने आश्रम में, काटूं अब गिन -गिन के
ये कैसा परिहास मिला , ममता का उपहास मिला ,
बच्चे अब बड़े हो गए , तब ये कटुता का आभास हुआ ।
बड़ी विवशता का आलम है, न बच्चे संग न बालम है।
यह सच्चाई किसे बताऊँ, दुख का विष मैं खुद पी जाऊँ।
ऐसी सोंच को सभी मिटाओ ,इसका नही कोई कालम है।
कैसा है जग, कैसी संताने ,कैसा दुख का आलम है।
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बाबुल के आंगन से
ले चल पड़ा कहार अंजान डगरी से अंजान नगर
मन छूट रहा था बाबुल के आंगन के बंधन से
लिखा था क्या ऊपर वाले ने नसीब में बेटियों के
रीत कैसी बनाई छलक रहे थे अश्क आंखों से
कारवां गुज़र रहा था साथ – मेरे कोई अपना नहीं था
बंध जाएंगे अनजान रिश्तों की डोर से धीरे -धीरे
मां के आंचल की छांव छूट गई
बेड़ियां मायके की टूट गई।
डोली उतरी जब अंनजान द्वार पर
सभी के चेहरों पर मुस्कान थी,
थाल सजाये खड़े थे स्वागत में
तब लगा उनसे कुछ पहचान थी।
कुछ पलों में सब लगे थे अपने
शायद मेरा अस्तित्व था इन्ही के लिए
मैं उदास रो रही थी किसके लिए
गुबार मन का उड़ चला वक्त के साथ
गुज़र गई बहुत सारी जिंदगी
पर लगता कल की ही है बात
गिरते संभलते पल जीवन के
बढ़ रहे थे मेरे
जिंदगी मुस्कुरा रही थी धीरे से।