रचनाकार: सुशीला तिवारी, पश्चिम गांव, रायबरेली
महाकुंभ
महाकुंभ का अवसर पावन,
संगम- तट के घाट सुहावन ,
धर्म की ध्वजा लहरा रही है,
साधु संत मिले दर्शन पावन।
तीरथ सकल प्रयाग में आये,
जाकर हम सब कुम्भ नहायें ,
तन-मन में स्थिरताआ जाती ,
जन्म कोटि के पाप मिटायें ।
गंगा- यमुना और सरस्वती,
सुन्दर रूप है संगम प्रकृति ,
मकर राशि पर सूर्य निवास,
पावन है अति माघ का मास।
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बेटी
बिदा हो गई थी जब बेटी ,
रूक कर मुड़ कर फिर से देखी ।
छूट गई बाबुल की गलियाँ ,
रोती मन की बाग की कलियाँ ।
याद न भूले बचपन की,
मैं पुतली तेरे नैनन की।
रोती है मेरी संग की सहेली,
बचपन इनके साथ मे खेली।
छूट रही बाबुल की हवेली ,
बचपन की यादे अलबेली।
प्यासी अखिया पति दर्शन की,
मैं पुतली तेरे नैनन की।
प्रियतम का तुझे प्यार मिलेगा
और सुखी संसार मिलेगा।
फूला फला परिवार मिलेगा।
कर सेवा पति चरनन की
याद न भूले बचपन की।
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इन्तजार
सितारे चांद दिखते हैं,,, समय है रात ढलने का ।
मुझे इन्तजार बेसब्री से, ,सूरज के निकलने का ।।
अदा उसकी कहें या फिर ,,,,,,,,शोखिया उसकी ,
मुझे मदहोश करती हैं ,,,,,,निगाहें नाज करने का ।
मुझे अंदाज भाता है ठुमक कर,चाल जब चलती,
बड़ा बेबाक सा है लहजा ,,,,,,,,छत से उतरने का ।
शाम होते ही ,,,जश्न -ए -महफिल में मंडराने लगे ,
अब इन्तजार है बस उनको,,,,,, शम्मा जलने का ।
जब से उसने दिल में अपने ,रहने की दे दी जगह ,
अब तो ये मन करता नही ,,,,,बाहर निकलने का ।
वो आये हमारे दर पर ,,,,,,,,मरहम भी साथ लेके,
शौक था हमें भी खुद जख्म ,,,,,अपने सिलने का ।
गिरकर संभलने का,,,,,,,,सलीका भी आ जायेगा,
है”सुशीला’को जरूरत ,,,,,,,सभी को समझने का ।
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जवाब-सवाल
जवाब पूंछो तो बदले में, सवाल देता है ।
वो हमारी हर बात को,,,,,,,टाल देता है ।।
उसके साथ बड़ा ,,,,,,बेफिक्र रहता हूँ मैं,
हर आई मुसीबत को, ,, ,संभाल देता है ।
और कुछ भी नही मिला ,,,,,कभी उससे,
पर तरकीबें बड़ी ही,,,,, ,,,कमाल देता है ।
भरोसा करना उस,,,,,,,,,,ईश्वर का हरदम,
वही हर मुश्किल से,,,,,,,,,निकाल देता है ।
बेफिक्र हो जिंदगी, ,जीने का हुनर रखते ,
खुदा फकीरोंको क्या-क्या कमाल देता है।
इश्क करना जमाने से,, कभी मत डरना,
न मानो लैला-मजनूँ की, मिसाल देता है।
इक अर्सा गुजर गया,, उसको भुला दिया,
“सुशीला” नजाने क्यूं दिल खयाल देता है।
3 Comments
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Bahut khoob
अति सुन्दर रचनाएं
बहुत सुंदर रचना