चैप्टर-2
मै अर्द्ध बेहोशी की हालत में पहुंच गया।
फिर जब आंखें खुलीं तो मैंने खुद को इलाहाबाद के डाॅ मनोज पंसारी के प्राइवेट अस्पताल में भर्ती पाया। मुझे मां की याद बाई। मैंने पूछा – मेरी मां कहां है? तब नर्स ने बताया कि उन्हें सिर में बहुत चोटें लगी हैं। उनको आईसीयू में रखा गया है। अगर बच जाएं तो समझना भोले बाबा की कृपा है।
मैं बैचेन होने लगा। डाॅक्टरो ने मुझे लेटे रहने का निर्देश दिया ताकि मेरी चोटों पर दबाव नहीं पड़े और वे जल्द से अच्छी हो सकें।
मां के पर्स में रखी एक छोटी सी डायरी में मिले नंबरों के आधार पर अस्पताल वालों ने पिताजी को फोन लगाया। तब लैंड लाइन का जमाना था। बड़ी मुश्किल से एकाध घंटे की मशक्कत के बाद फोन लगा। पिताजी अपने दोस्त दिवाकर सक्सेना के साथ बाइक पर बैठकर अस्पताल पहुंचे।
उन्होंने पहले मां की हालत का जायजा लिया। फिर मेरी तरफ आए। उनके चेहरे पर दर्द का सैलाब उमड़ रहा था। पर मेरी हालत जानकर उन्हें थोड़ी तसल्ली हुई। वे मुझे सीने से चिपटाते हुए और माथे को चूमते हुए बोले- बेटा! तुम्हारी मां की हालत तो बहुत खराब है। गर्दन सीधी करने में मुश्किल हो रही है। चेहरा कांच के टुकड़ों से लहू-लुहान हो चुका है। डाॅक्टर कह रहे हैं कि यदि वे बच गईं तो यह चमत्कार ही होगा।
अपने पिताजी की ऐसी बातें सुनकर और अपनी मां की हालत के बारे में जानकर मुझे बहुत दुख हुआ। मेरी आंखों से आंसुओं का दरिया बह निकला। तभी नर्स आई। उसने मेरी फिर से मरहम पटृटी की। इस घटनाक्रम से माहौल में थोड़ा बदलाव हुआ। इसके बाद पिताजी मेरे सिर पर हाथ फेरकर आईसीयू के बाहर जाकर बैठ गए।
30 जनवरी 1970। उस दिन सूरज ठीक वैसे ही निकला जैसा कि वह रोज निकलता था। सुबह आकर पिताजी बता गए थे कि मेरी मा अभी भी बेहोशी की हालत में हैं। कब क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता।
इस तमाम घटनाक्रम के बीच अस्पताल वालों का मीटर चालू था। उस समय 150 रुपये रोज आईसीयू का चार्ज था। फिर दवाइयों जांचों, खून की बोतल चढ़ाने आदि का खरचा अलग से। शाम होते-होते अस्पताल का बिल 200 रुपये हो चुका था। पिताजी को करीब आठ दिनों तक अस्पताल का चक्कर झेलना पड़ा। इस अवधि में मेरी चोटें तो ठीक होने लगी थीं। मेरा डिस्चार्ज टिकट बन गया था। पर माताजी की हालत स्थिर होने के बजाय बिगड़ती जा रही थी।
आखिरकार 7 फरवरी 1970 को मेरी मां हम सबको और दुनिया के तमाम कष्टों से मुक्त होकर दिवंगत हो गईं। मैं वह क्षण कभी नहीं भूल सकता जब उन्होंने आखिरी घंटे में कुछ होश सा आने पर मेरा घर का नाम – रघुराज कहने की कोशिश की और मेरे सिर को सहलाने की कोशिश की थी। फिर उन्होंने जो आंखें बंद कीं, कभी नहीं खोलीं। वे हमें इहलोक में रोता-कलपता छोड़कर दूसरी दुनिया में चली गईं,।
इसके बाद पिताजी काफी दिनों तक खोये-खोये से रहे। अस्पताल के खर्च ने उन्हें परेशान कर दिया था। सैलरी के बाहर पैर पसारने के जरूरत पड़ गई और उन्हें दिवाकर से करीब एक हजार रुपये उधार लेने पड़ गए।
क्रमशः
(काल्पनिक कहानी)