आखिरी चैप्टर
घर पर जब मैं नहीं मिला तो वे मुझे ढूंढ़ते हए घर के पीछे पहुंच गए।
तब हम अपने मनी प्लांटृस को खाद देने में लगे थे। हमें देखकर पिताजी ने पूछा – रघु! ये सब क्या हो रहा है?
पिताजी की कड़क आवाज में हमारी तरफ फेंके गए प्रश्न से हमारी घिग्धी बंध गई। खुरपी हाथ से छूट गई। दयाशंकर ने हाथ में जो मग्गा और खाद संभाल रखा था, वह नीचे गिर गया। हम दोनों बुरी तरह घबरा गए।
पिताजी ने हमें पैनी नजरों से घूरते हुए फिर कड़क आवाज में पूछा – क्या हो रहा है ये सब?
मैं – वो वो पिताजी जी जी जी हम …
पिताजी – हां बको न! क्या कर रहे थे?
मैं – ये वो कुछ नहीं जी! पिताजी जी पिताजी! वो हम पैसों का पेड़ …
पिताजी – पैसों का पेड़??????????????
दयाशंकर – जी, चाचाजी! हम पैसों का पेड़ लगा रहे थे! हमने सोचा कि हमारे लगाए हुए पेड़ में जब नोट फलेंगे तो आपको बड़ी राहत मिलेगी। आपकी मदद हो जाएगी।
मैं – हां पिताजी! हम ऐसा करके आपकी मदद करना चाह रहे थे ताकि आपको मां के जाने का जो गम है और हमारे सामने जो आर्थिक समस्या हो गई है वह दूर हो सके!
यह सुनकर पिताजी के चेहरे पर खिंची गुस्से की लकीरें गायब हो गईं। वे जोर से हंस पड़े। बोले – अरे! तुम भी ऐसे पागल होगे मैंने सोचा भी नहीं था। अरे! पैसे कोई पेड़ पर थोड़े ही लगते हैं। उन्हें तो कमाना पड़ता है।
पर मुझे अब भी अपने दिमाग पर पूरा भरोसा था। मैंने पिताजी के चेहरे पर हंसी देखी तो कुछ हिम्मत आ गई। मैंने कहा – देखो न! पापा हमने यहां चार चवन्नियां गाड़ी थीं। वे अब पौधों में बदल रही हैं। ये देखो न ये नन्हे-नन्हें पौधे उग रहे हैं। ये जब बड़े हो जाएंगे तो इनमें नोट लगेंगे। फिर हमारी तमाम परेशानियां दूर हो जाएंगी और हम अमीर हो जाएंगे।
यह सुनकर पिताजी और जोर से हंसने लगे। वे मेरे कान को उमेठी देते हुए बोले – ओ बेवकूफ! ये पैसों के पौधे नहीं घास फूस हैं। वो तो तुम खाद-पानी दे रहे थे अतः ये उग आए हैं। इनमें कोई पैसे-वैसे नोट-वोट थोड़े ही लगने वाले।
इसके बाद उन्होंने मेरा कान छोड़कर उन पौधों को जड़ से उखाड़कर दिखाया। हमारी चारों चवन्नियां तो ऐसी काली पड़ गई थीं कि हमें समझ में नही आ रहा था कि ये वास्तव में चवन्नियां ही हैं या और कुछ! उनमें न तो जड़ें निकली थीं और न ही पत्ते! बल्कि वे जमीन में दबकर काली पड़कर अजीब सी जरूर हो गई थीं!
पिताजी से मिले ज्ञान ने हमारी आंखें खोल दीं। उन्होंने बाद में हमारे साथ दोपहर का भोजन करते हुए समझाया कि पैसे नौकरी या बिजनेस या खेती-किसानी अथवा कोई काम करके कमाए जाते हैं। वे पेड़ों पर नहीं लगते। उनके लिए मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है। काफी श्रम करना पड़ता है।
उन्होंने हमें अपने जीवन का उदाहरण देकर समझाया कि पैसा इस तरह से जरूर कमाना चाहिए जिससे किसी का अहित नहीं हो और इतना कमाना चाहिए कि हम अपनी आवश्यकताएं भी पूरी कर सकें और जरूरत पड़ने पर दूसरों की भी मदद कर सकें।
वह दिन है और आज का दिन है। आज मैं इलाहाबाद में ज्वैलरी के एक बड़े शो रूम को चलाता हूं। पिताजी इस संसार में नहीं हैं। वे भी सात साल पहले दिवंगत मां के लोक में जा चुके हैं। पर वे जो मुझे सीख दे गए थे कि पैसे पेड़ों पर नहीं उगते, मैंने उसे अपने जीवन का मूलमंत्र बना लिया है। पिताजी के रिटायरमेंट से कोई नौ साल पहले मैंने जो ज्वैलरी का धंधा शुरू किया था अब वह अच्छी तरह से फल-फूल रहा है और मैं न केवल अपने चार सदस्यीय परिवार का अच्छी तरह से पालन-पोषण कर रहा हूं बल्कि शोरूम में काम कर रहे छः लोगों के परिवार को भी संभाल रहा हूं।
(काल्पनिक कहानी)