रचनाकार : विजय कुमार तैलंग, जयपुर (राजस्थान)
अक्सर ये देखा गया है कि ज्यादातर धनिक लोगों की धन्धे में बचत और नुकसान की भरपाई सबसे निचले तबके के कर्मचारी से शुरू होती है क्योंकि वही मजबूरी का मारा होता है जो आवाज भी नहीं उठा पाता। पता नहीं क्यों अधिकतर धनिक वर्ग को उसकी न्यूनतम तनखा भी ज्यादा लगती है जबकि वो अधिक शोषण का शिकार होता है और बमुश्किल तमाम अपना गुजर भर करता है? समर्थ लोगों से तो बस नफ़ा नुकसान का आंकलन भर ही होता है। ये कहानी इसी उक्ति की एक बानगी है।
एक कन्जूस सेठ था। वो इस बात पर बड़ा सतर्क रहता था कि कोई नुकसान न हो जाए। यदि सारी सावधानियों के बावजूद भी कोई नुकसान हो ही जाए तो जब तक उस नुकसान की पूरी भरपाई का रास्ता न खोज ले, उसे चैन नहीं आता था।
उसके यहाँ कई नौकर काम किया करते थे जैसे चौकीदारी के लिए कोठी का गार्ड, बग़ीचे के रख-रखाव के लिए एक माली, साफ सफाई के लिए भी दो नौकर लगे थे। रसोईघर के काम के लिए एक खाना बनाने वाली और एक बर्तन मांजने वाली। सेठ जी की तरह सेठानी जी भी इस बात पर पूरी नजर रखती थी कि भूल से भी कोई नुकसान नहीं हो जाए।
उनके यहाँ एक दूध वाला रोज अपने पास के गाँव से आता था और उनकी जरूरत के अनुसार दूध की आपूर्ति करता था। वह कई वर्षों से उनके यहाँ दूध की आपूर्ति कर रहा था। न केवल दूध, वह वक्त-वक्त पर जरूरत के अनुसार गाँव से शुद्ध खालिस घी भी उन्हें लाकर देता था और वर्ष में एक दो बार गेंहूँ की बोरी भी। सेठजी को इस तरह उससे कई प्रकार के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष लाभ होते थे।
एक बार किसी आयोजन के लिए सेठजी ने दूध वाले से दस लीटर दूध लिया। रसोई में दूध का बर्तन चूल्हे पर चढ़ाते ही थोड़ी देर बाद सारा दूध फट गया। ये तो भयंकर नुकसान हो गया था। सत्तर रुपये लीटर के भाव का दूध पूरे सात सौ रुपये का बैठता था। यानी पूरे सात सौ रुपये का नुकसान। सेठानी जी का तो दिल बैठ गया।
(क्रमश:)